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________________ चिरं तिद्वतु सद्धम्मो ! चिरस्थायी हो सद्धर्म ! द्वेमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति। कतमे वे? सुनिक्खित्तञ्च पदव्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो। सुनिक्खित्तस्स, भिक्खवे, पदव्यञ्जनस्स अत्थोपि सुनयो होति। अ०नि० १.२.२१, अधिकरणवग्ग भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म के कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें ? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जांय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं। ...ये वो मया धम्मा अभिज्ञा देसिता. तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं व्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिकं...। दी० नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त ...जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है, उसे अर्थ और ब्यंजन सहित सब मिल-जुल कर, बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो...। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009977
Book TitleDighnikayo Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size13 MB
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