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________________ [३७] तत्पश्चात भगवान ने तीन प्रकार के आत्म-प्रतिलाभ (जन्म-ग्रहण) की जानकारी दी - स्थूल, मनोमय तथा अ-रूप (अ-भौतिक) । चार महाभूतों से बना हुआ, ग्रास-ग्रास करके आहार करने वाला 'स्थूल' जन्म-ग्रहण होता है। रूपी, मनोमय, सब अंग-प्रत्यंग वाला, इंद्रियों से परिपूर्ण 'मनोमय' जन्म-ग्रहण होता है । अ-रूप (देवलोक में) संज्ञामय होना 'अ-रूप' जन्म-ग्रहण होता है। भगवान ने कहा मैं तीनों प्रकार के जन्म-ग्रहण से छूटने के लिए धर्मोपदेश करता हूं। इससे चित्त-मल उत्पन्न करने वाले (संक्लेशिक) धर्म छूट जाते हैं, शोधक धर्म बढ़ते हैं, प्रज्ञा की परिपूर्णता वा विपुलता को इसी जीवन में अपनी अभिज्ञा से साक्षात जान कर, प्राप्त कर, विहार करने लगते हैं। इससे प्रमोद भी होता है और प्रीति, प्रश्रब्धि, स्मृति, संप्रज्ञान तथा सुख-विहार भी होता है । तत्पश्चात भगवान ने वर्तमान शरीर की सत्यता को प्रज्ञप्त किया। उन्होंने कहा कि जिस समय जैसा जन्म-ग्रहण होता है- स्थूल, मनोमय अथवा अ-रूप- उस समय उसी को स्वीकार करना होता है, अन्य को नहीं । जैसे गाय से दूध, दूध से दही, दही से मक्खन, मक्खन से घी, घी से घी का सार तैयार होता है परन्तु इन पदार्थों में से जिस समय जो पदार्थ विद्यमान होता है, उसी को यथार्थतः स्वीकार करना होता है, अन्य को नहीं। भगवान के उपदेश से प्रभावित हो पोठ्ठपाद परिव्राजक भगवान का शरणागत उपासक हुआ और चित्त हत्थिसारिपुत्त भगवान के पास प्रव्रज्या, उपसंपदा पा अरहंतों में से एक हुआ । १०. सुभसुत्त भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के कुछ ही दिन बाद आयुष्मान आनन्द सावत्थी में अनाथपिण्डिक के जेतवन आराम में विहार कर रहे थे। उस समय तोदेय्यपुत्र सुभ नाम के माणवक ने उन्हें अपने घर पर आमंत्रित कर उनसे कहा - 'आप भगवान गौतम के बहुत दिनों तक सेवक तथा समीपचारी रहे । कृपया यह बतलायें कि भगवान किन धर्मों की प्रशंसा किया करते थे, किन धर्मों को वे जनता को सिखाते और उनमें प्रवेशित-प्रतिष्ठित करते थे ?' इस पर आयुष्मान आनन्द ने उसे भगवान द्वारा प्रशंसित तीन स्कंधों की जानकारी दी (१) आर्य शील-स्कंध, (२) आर्य समाधि-स्कंध, तथा (३) आर्य प्रज्ञा-स्कंध । तत्पश्चात इनके बारे में विस्तार से समझाया कि संसार में तथागत के उत्पन्न होने पर उनके 47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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