SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [३१] ६. प्रज्ञा-यज्ञ- जब कोई व्यक्ति अपने समाहित हुए मृदु, निर्मल चित्त को (विपश्यना) ज्ञान के लिए तथा आस्रवों के क्षय के ज्ञान के लिए नवाता है जिससे वह प्रज्ञापूर्वक जान लेता है - 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कछ रहा नहीं।' इस यज्ञ-संपदा से बढ कर कोई दूसरी यज्ञ-संपदा नहीं है। यह सुन कर कूटदन्त ब्राह्मण ने भगवान से कहा आप मुझे अंजलिबद्ध शरण में आया हुआ उपासक स्वीकार करें । भगवान ने उसे आनुपूर्वी कथा कही जैसे कि दान कथा, शील-कथा, स्वर्ग-कथा; भोगों के दुष्परिणाम, अपकार, मलिनकरण; और गृह त्यागने के माहात्म्य को प्रकाशित किया । जब उन्होंने उसे उपयुक्त-चित्त, मृदु-चित्त, आवरणरहित-चित्त, उद्गत-चित्त जाना तब जो बुद्धों का स्वयं अनुभूत धर्मोपदेश है - दुःख, समुदय, निरोध, मार्ग- उसे प्रकाशित किया । जैसे शुद्ध, निर्मल वस्त्र को रंग अच्छी तरह पकड़ लेता है वैसे ही कूटदन्त ब्राह्मण को उसी आसन पर, यह विरज, विमल धर्मचक्षु प्राप्त हुआ कि जो कुछ उत्पन्न होने वाला है, वह नाशवान है। ६. महालिसुत्त एक समय वेसाली में महावन की कूटागारशाला में भगवान विहार करते थे। उस समय लिच्छवी सरदार ओट्टद्ध ने उनसे कहा कि सुनक्खत्त नाम के लिच्छवि-पुत्र ने मुझे बतलाया था कि में लगभग तीन वर्ष तक भगवान के पास रहा जिससे मैं मन को लुभाने वाले दिव्य शब्द सुन पाऊं परंतु मैं इन्हें नहीं सुन पाया। तो क्या लिच्छवि-पुत्र ने दिव्य शब्दों के होते हुए भी इन्हें नहीं सुना अथवा इनका अस्तित्व नहीं होने से इन्हें नहीं सुना ? इस पर भगवान ने कहा कि दिव्य शब्दों के होते हुए भी लिच्छवि-पुत्र ने इन्हें नहीं सुना । इसका कारण यह है कि किसी-किसी को दिव्य रूपों के दर्शनार्थ एकांश (एकतरफ़ा) समाधि प्राप्त होती है, परंतु दिव्य शब्दों के श्रवणार्थ नहीं । ऐसे ही किसी-किसी को दिव्य शब्दों के श्रवणार्थ एकांश समाधि प्राप्त होती है परंतु दिव्य रूपों के दर्शनार्थ नहीं । और किसी-किसी को दिव्य रूपों के दर्शनार्थ और दिव्य शब्दों के श्रवणार्थ उभयांश (दोतरफ़ा) समाधि प्राप्त हो जाती है। भगवान ने ओट्ठद्ध के इस संशय को भी दूर किया कि भिक्षुगण उनके पास इन समाधि-भावनाओं के साक्षात्कार हेतु ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि इनसे बढ़-चढ़ कर और इनसे अधिक उत्तम दूसरे ही धर्म हैं जिनके साक्षात्कार के लिए भिक्षुगण उनके पास ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। और वे हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy