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________________ सुत्त-सार १. ब्रह्मजालसुत्त इस सुत्त का आरंभ राजगह और नाळन्दा के बीच के रास्ते पर भिक्षु-संघ के साथ भगवान बुद्ध की यात्रा के साथ होता है। सुप्पिय परिव्राजक और उसके शिष्य ब्रह्मदत्त में बुद्ध, धर्म और संघ को लेकर वाद-विवाद चल रहा है। एक इनकी निंदा करता है तो दूसरा प्रशंसा। इस प्रसंग को लेकर भगवान भिक्षुओं को समझाते हैं कि यदि कोई व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ की निंदा करे तो उससे न तो वैर, न असंतोष और न चित्त में कोप करे । ऐसा करने से अपनी ही हानि होती है । बल्कि सच्चाई का पता लगाना चाहिए कि जो कुछ कहा जा रहा है वह ठीक है या नहीं। ऐसे ही यदि कोई व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ की प्रशंसा करे तो उससे न तो दित न प्रसन्न और न हर्षोत्फल्ल होना चाहिए। ऐसा करने से अपनी ही हानि होती है। बल्कि सच्चाई का पता लगाना चाहिए कि जो कुछ कहा जा रहा है वह ठीक है या नहीं। तदुपरांत भगवान यह समझाते हैं कि अज्ञानी लोग तथागत की प्रशंसा छोटे या बड़े गौण शीलों के लिए करते हैं जब कि उनकी प्रशंसा उन गूढ धर्मों के लिए की जानी चाहिए जिन्हें वे स्वयं जान कर और साक्षात्कार कर प्रज्ञप्त किया करते हैं। इस प्रसंग में वे अपने समय में प्रचलित बासठ प्रकार की मिथ्या धारणाओं (दार्शनिक मतों) पर प्रकाश डालते हैं। इनमें से कुछ तो आत्मा और लोक के 'आदि' को और अन्य इनके 'अंत' को लेकर प्रचलित थीं। इनको उन्होंने क्रमशः 'पूर्वांतकल्पिक' और 'अपरांतकल्पिक' की संज्ञा दी है। 'पूर्वांतकल्पिक' धारणाओं के अंतर्गत ऐसी मान्यताएं बतलायी गयी हैं जैसे आत्मा और लोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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