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________________ सद्धर्मसंरक्षक २- साधु-साध्वी चलते हैं, उठते-बैठते हैं, हलन चलन करते हैं, श्वासोश्वास लेते हैं, खाते हैं, पीते हैं, टट्टी-पेशाब करते हैं; इन ६६ यदि उठने बैठने, चलने फिरने आदि से जीवहिंसा हो भी जावे तो भी श्री तीर्थंकर भगवन्तों के आदेशानुसार यत्नपूर्वक आचरण से बन्ध नहीं होता। अतः प्रमाद का त्याग ही यत्न है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है कि "जीव मरें अथवा जीवित रहें, अयत्नाचारी (प्रमादी) निश्चित रूप से हिंसक है तथा यत्न (जयणा - सावधानी) पूर्वक आचरण करनेवाले व्यक्ति को प्राणवध मात्र से बन्ध नहीं होता।" फिर भी कहा है “यत्नापूर्वक आचरण करनेवाले दयावान भिक्षु को नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता और पुराने कर्मों का नाश भी होता है। " "अयत्नापूर्वक आचरण करनेवाले व्यक्तियों को प्राणियों की हिंसा का दोष है । वे नये पाप कर्मों का बन्ध भी करते हैं जिसके परिणाम स्वरूप कडवे फल को भोगते हैं।" - आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार के उपर्युक्त संदर्भ की तत्त्वदीपिका नामक वृत्ति में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं- जिसका सारांश यह है - हिंसा की व्याख्या दो अंशो में पूरी की गई है। पहला अंश है अन्तरंग प्रमत्तयोग अर्थात् रागद्वेष युक्त किंवा असावधानी पूर्वक प्रवृत्ति, और दूसरा बहिरंग - प्राणवध | पहला अंश कारणरूप है और दूसरा कार्यरूप है। इसका फलितार्थ यह होता है कि जो प्राणवध प्रमत्तयोग से हो वह हिंसा है। प्रमत्तयोग आत्मा के अशुद्ध परिणाम होने से इसके सद्भाव में प्राणवध हो या न हो तो भी हिंसा का दोष लगता है ( रागद्वेष तथा असावधानी के बिना) । अप्रमत्तयोग (यत्नपूर्वक-जयणापूर्वक शुद्ध योग ) से प्राणवध हो अथवा न हो तब हिंसा का दोष नहीं है । कहा भी है कि "यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।" "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः " अतः प्रमाद के अभाव में शुद्धोपयोग होने से यदि प्राणवध हो भी जावे तो हिंसा का दोष नहीं है । (२) श्री गौतम गणधरादि आचार्यों ने भी हिंसा-अहिंसा के स्वरूप के विषय में स्पष्ट कहा है कि Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [66]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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