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________________ ४७ मुखपत्ती-चर्चा २- दूसरा प्रमाण हम यहां हिन्दुओं के शिवपुराण का देते हैं। जिसमें जैनधर्म की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए जैन साधु के स्वरूप का वर्णन दो श्लोकों में इस प्रकार किया है "मुण्डिनं म्लानवस्त्रं च गुम्फिपात्रसमन्वितम् । दधानं पुञ्जिका हस्ते चालयन्तं पदे पदे ॥१॥ वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं क्षिप्यमाणं मुखे सदा । धर्मेति व्याहरन्तं न वाचा किल्कवया मुनिम् ॥ २ ॥ अर्थात् - सिरसे मुंडित (लोच किये हुए), मलिन-वस्त्र पहने हुए, काष्ठ के पात्र और पुंजिका (रजोहरण) हाथ में रखते हुए, पदपद पर उसे चलायमान करते हुए, हाथ में एक वस्त्र लेकर उससे मुख को ढाँकते हुए और धर्मलाभ मुख से बोलते हुए, ऐसे पुरुष को उत्पन्न किया। १- इन दो श्लोकों से भी स्पष्ट है कि जैन साधु-साध्वी हाथ में प्राचीन काल से ही मुखवस्त्रिका रखते आ रहे हैं। २- इससे यह भी प्रमाणित हो जाता है कि नियुक्तियों, चूर्णियों आदि में वर्णन किये गये मुखवस्त्रिका को हाथ में रखने के उल्लेख मूल जैनागमों के अनुकूल हैं और उन्हीं के अनुसार मानकर तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा को स्वीकार करना है। यदि नियुक्ति को न माना जावे तो मुहपत्ती का स्वरूप कहीं से भी मिलना संभव नहीं है। इसलिये इसके विपरीत आचरण करना जिनाज्ञा के विरुद्ध है। १. कलकत्ता बंगला आवृत्ति शिवपुराण ज्ञान सं० अ० २१, २२ पृष्ट ८३ । थोडे फेरफार के साथ मिलता है। Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [47]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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