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________________ सद्धर्मसंरक्षक आपकी शंका के समाधान के लिये उपर्युक्त प्रमाणों से कोई कमी नहीं रही होगी। अतः समाधान हो गया होगा ? ४४ ऋषि अमरसिंहजी - आपने नियुक्ति आदि के जो प्रमाण दिये हैं वे हमें मान्य नहीं हैं। ये तो पीछे के आचार्यों ने मनमाने लिख दिये हैं। हम तो मूल पाठ को मानते हैं सो पाठ बतलावें । दूसरी बात यह है कि हत्थगं शब्द का अर्थ जो मुखपोतिका व्याख्याकार आचार्यने किया है, हमारे परम्परा के साधु इसका अर्थ पूंजनी करते हैं। क्योंकि पूंजनी (प्रमार्जनी) हाथ में रखी जाती है और मुँहपत्ती मुँह पर बाँधी जाती है । इस लिये इसका अर्थ मुँह संभव नहीं है। ऋषि बूटेरायजी - १- मूलागमों में मुँहपत्ती का वर्णन तो आया है, परन्तु इसके स्वरूप और प्रयोजन का वर्णन नहीं मिलता। यदि मिलता है तो ओघनियुक्ति में मिलता है और वास्तव में विचार किया जावे तो निर्युक्ति भी आगम के समान ही प्रामाणिक है । कारण कि उसके निर्माता कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं किन्तु पाँचवें श्रुतकेवली चौदहपूर्वधारी जैनाचार्य भद्रबाहुस्वामी हैं । शास्त्रानुसार तो अभिन्न-दसपूर्वी तक का कथन भी सम्यग् - यथार्थ ही माना है। क्योंकि अभिन्न-दसपूर्वी तक नियमेन सम्यग्दृष्टि होते हैं । इसके लिये नन्दीसूत्र का मूलपाठ यह है " इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं चउदपुव्विस्स सम्मसुअं, अभिण्णदस-पुव्विस्स सम्मसुअं, तेण परं भिण्णेसु भयणा से णं सम्मसुअं ॥ Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [44]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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