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________________ ३८ सद्धर्मसंरक्षक इसलिये मुख बांधे रखने से उन पंचेन्द्रिय आदि त्रस जीवों की उत्पत्ति और हिंसा भी संभव है। अत: चौबीस घंटे मुख बाधे रहने से त्रसजीवों की हिंसा आगम-प्रमाण से सिद्ध है। ४- यदि वायुकाय की हिंसा खुले मुँह बोलने से संभव है और मुँह बाँधने से उनका बचाव होता है, तो अधिष्ठान (आसनस्थान), नाक एवं मुख इन तीनों को बाँधना चाहिये । परन्तु ऐसा तो आप और आपके संत अथवा अन्य कोई भी नहीं करता ? प्रथमांग आचारांग श्रुतस्कंध २ अध्ययन २ उद्देशा ३ में कहा है कि अपने शरीर से सात कारणों से वाय निकलते समय जैन भिक्ष अथवा भिक्षुणी को हाथ से ढाककर वायु का निसर्ग करना चाहिए। वह पाठ इस प्रकार है - से भिक्खू वा भिक्खणी वा उसासमाणे वा णिसासमाणे वा कासमाणे वा छियमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डवाए वा वायणिसग्गे वा करेमाणे वा पुव्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता ततो संजायमेव ओसासेज्जा जाव वायणिसग्गे वा करेज्जा ॥ अर्थात् - यह साधु अथवा साध्वी १-श्वास लेवे, २-श्वास छोडे, ३-खांसी करे, ४-छींक करे, ५-जंभाई (उबासी) लेवे, ६-डकार लेवे, अथवा ७-वायु का निसर्ग (पाद) करे तो मुख अथवा अधिष्ठान (आसन-स्थान) को हाथ से ढाककर करे । (अ) यहां पर मुख और अधिष्ठान (गुदा) को हाथ से ढाँकना कहा है, बाँधना नहीं । यदि मुख बंधा होता तो हाथ से ढाँकना क्यों कहा ? इस से स्पष्ट है कि जैन साधु-साध्वी को कभी भी चौबीस घंटे मुंह बाँधना आगम-सम्मत नहीं है। Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5 [38]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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