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________________ २२२ सद्धर्मसंरक्षक सहन करने में दृढसंकल्प थे। अपनी सुरक्षा तथा सुख-सुविधाओं के लिये अपने साथ किसी भी प्रकार का प्रबंध रखना शास्त्रमर्यादाओं का उल्लंघन समझते थे । आप किसी भी श्रीसंघ की सहायता के बिना तथा उसे बिना समाचार दिये विहार करते थे। ८- आपने एकाकी घोर उपसर्गों, कठोर परिषहों, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी को बर्दाश्त कर श्रीतीर्थंकर केवली भगवन्तों के वास्तविक सत्यधर्म के पुनरुत्थान करने में विजय प्राप्त की। पश्चात् आपके ही लघुशिष्य तपागच्छीय जैनाचार्य न्यायाम्भोनिधि श्रीविजयानन्दसूरीश्वर (आत्मारामजी) महाराजने इन पाखंडों को जड-मूल से हिला दिया। ९- गुजरात और सौराष्ट्र में आपश्री के साथ आपके दो सुशिष्यों १-गणिश्री मुक्तिविजय (मूलचन्दजी) २-शांतमूर्ति आदर्श गुरुभक्त मुनिश्री वृद्धिविजय (वृद्धिचन्दजी), पंजाब में नवयुग निर्माता न्यायाम्भोनिधि आचार्य श्रीविजयानन्दसूरि (आत्मारामजी) ने विजयदुंदुभी बजायी । गणिश्री मूलचन्दजी तथा मुनिश्री वृद्धिचन्दजी गुजरात में आने के बाद अपनी जन्मभूमि पंजाब में कदापि नहीं गये। ये दोनों गुजरात तथा सौराष्ट्र में ही विचरे । ___ हाँ, आप मुनिराजों के शिष्य-प्रशिष्य परिवार ने भारत के अन्य सारे प्रदेशों में भ्रमण करके इन तीनों गरुभाइयों - गणि मूलचन्दजी, मुनि वृद्धिचन्दजी तथा आचार्य विजयानन्दसूरिजी ने जिन क्षेत्रों को स्पर्श (विहार) नहीं किया था, वहाँ विचर कर सद्धर्म का व्यापक प्रचार किया। आज तपागच्छ में हजारों की संख्या में साधु-साध्वीया हैं। इनमें अधिकतम समुदाय सद्धर्मसंरक्षक पूज्य बूटेरायजी का ही है। Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5 [222]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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