SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ सद्धर्मसंरक्षक भोगे। देह का दंड देह को मिले। इस में जीव को कोई लाग-लपेट नहीं। आत्मा तो सदा के लिये निरंजन निराकार है। वह खाती नहीं, पीती नहीं । इस लिये खाने-पीने का दोष जीव को नहीं लगता । "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः ।" 'मन चंगा तो कठौती में गङ्गा' । शरीर उदय के आधीन है। वह चाहे जो कुछ करे इसमें आत्मा का क्या दोष? चाहे जो करो पर मन को साफ रखो तो मोक्ष सामने खडा है । इत्यादि अनेक तर्कणाओं पर यह मत खडा था। अहमदाबाद में बहुत लोग इसके अनुयायी थे । क्रियाकांड और तपस्या को छोड बैठे थे। धनी, मानी, प्रतिष्ठित परिवार भी इस मत को मानने लगे थे। नगरसेठ प्रेमाभाई का एक भद्रिक पुत्र भी इस पंथ का अनुयायी था । श्रीशांतिसागर गुरुदेव बूटेरायजी को अपना गुरु मानता था। अपने मत के प्रचार और प्रसार के लिये यह भी इसकी एक चाल थी। अहमदाबाद में इस मत के कारण संघ में दो धडे हो गये थे। सहज में ही संघर्ष होने की सदा संभावना बनी रहती थी। नगरसेठ भी कुछ समाधान लाने में असमर्थ बन चुके थे। इस प्रकार धर्म का हास हो रहा था। शांतिसागरजी के प्रस्ताव का पूज्य आत्मारामजी ने सहर्ष स्वागत किया। अगले दिन श्रीशांतिसागर ने आकर आपसे जो प्रश्न किये, उनका हजारों की मानवमेदनी के सामने आपने शास्त्रों के आधार से इतना सचोट उत्तर दिया कि शांतिसागरजी को निरुत्तर होकर वहां से प्रस्थान करने के सिवाय और कोई मार्ग न सूझा । Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5 [186]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy