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________________ १७४ सद्धर्मसंरक्षक सूत्र शास्त्र पढने-सुनने का पुरुषार्थ करो, तब तुमको ज्ञान की प्राप्ति होगी । तब तुम स्वयं जान पाओगे कि सम्यक्त्व के लक्षण तुममें हैं अथवा नहीं ? वीतराग प्रभुने कहा है कि जो अपने आप (आत्मा) को जानता है वह दूसरे को भी जानता है । " जे अप्पं जाणइ से परं जाई ॥ " - यह सम्यक्त्व की प्राप्ति या जानने का उपाय है। कहा भी है " जे जे अंसे रे निरूपाधिकपणो, ते ते जाणो रे धर्म । सम्यग्दृष्टि रे गुणठाणा धनी जोवा लहे शिवशर्म ॥ श्रीसीमंधर साहेब साँभलो ॥ (दोहा) गुण जानो ते आदरो, अवगुणथी रहो दूर । ए आज्ञा जिनराजनी, एहि ज समकित मूल । समभावी गीतार्थ नाणी, आगम माँहि लहिए रे 1 आत्मार्थी शुभमती सज्जन, कहो ते विण किम कहिये रे ॥ १ ॥ (उपा० यशोविजयजी कृत ३५० गाथा के स्तवन की ढाल ६ गाथा १७) विषय रसमां ग्रही माच्यो, नाचियो कुगुरु मदपूर रे । धूमधामे धमाधम चली, ज्ञान मारग रहियो दूर रे ॥१॥ ( यशो० १२५ गाथा के स्तवन की ढाल १ गाथा ७) (५) गुरूजी ! आत्मार्थी भव्य जीव को क्या करना चाहिये ? मूला ! आत्मार्थी भव्य जीवों को चाहिये कि यह पूर्वाचार्यों, गीतार्थों द्वारा किये गये मूल आगमों पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका के अनुसार आचरण करनेवाले गच्छ तथा सामाचारी का आदर Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [174]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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