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________________ श्री बूटेरायजी और शांतिसागरजी १६१ इसलिये आज फिर अन्धकार का जोर बढ़ता जा रहा हैं । इस अन्धकार को दूर करने के लिए विधिमार्ग के पक्ष की हिमायत में तत्पर तथा सत्य-प्ररूपक रूप पद को धारण करनेवाले मुनिराज श्रीबूटेरायजी (बुद्धिविजयजी) महाराज के परमभक्त (खरतरगच्छीय नेमसागरजी के शिष्य) मुनिश्री शांतिसागरजी महाराज ने गुजराती भाषांतर तैयार किया है। अब प्रस्तावना समाप्त करने से पहले यहाँ लोगों में प्रचलित कुछ शब्दभ्रम को दूर करने की आवश्यकता है। १- देरावासी-मन्दिरवासी - पहला शब्दभ्रम । जिनमंदिर माननेवालों के लिये आजकल 'देरावासी-मंदिरवासी' शब्द प्रयोग किये जाते हैं। यह सर्वथा अनुचित है। देरावासी-मंदिरवासी शब्द 'चैत्यवासी' शब्द का पर्यायवाची है। इसका अर्थ है 'मंदिर में रहनेवाला ।' परन्तु जिनमंदिर को माननेवाला कोई भी व्यक्ति जिनमंदिर में निवास नहीं करता; फिर वह चाहे त्यागी वर्ग साधुसाध्वी हो, चाहे गृहस्थ वर्ग श्रावक-श्राविका हो । और न ही जिनमंदिरों में रहने की शास्त्रों में आज्ञा ही है। क्योंकि मुख पर चौबीस घंटे मुखवस्त्रिका बाँधनेवाले लुंकामती साधु-साध्वीयाँ और गृहस्थ लोग अपने आपको स्थानकवासी कहने और कहलाने में गौरव मानते हैं और इस मत के साधु-साध्वीयाँ इनके निमित्त बनाये हुए स्थानकों में रहते हैं। इन्हीं लोगों ने जिनमंदिर माननेवालों को देहरावासी-मंदिरवासी कहकर उनकी अवहेलना रूप 'चैत्यवासियों' के पर्यायवाची शब्द प्रयोग करके यह सूचित करने की कुचेष्टा की है कि संवेगी साधु-साध्वीयाँ जिनमन्दिरों में निवास करनेवाले मठधारी-परिग्रहधारी है, इसलिये ये शिथिलाचारी है और Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [161]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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