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________________ श्री बूटेरायजी और शांतिसागरजी १५९ विवाह-शादियां करने लगे । जमीन, जायदाद, खेतीवाडी से अर्थोपार्जन करने के चक्र में पडकर एक सदाचारी गृहस्थ से भी पतित हो गये। आज ये लोग दिगम्बरों में भट्टारक और श्वेताम्बरों में यति-गुरांजी, महात्मा (भट्टारक) आदि के नाम से छाये हुए हैं । आज जो भी साधु पतित-भ्रष्ट हो जाता है वह प्रायः इन्हीं के गिरोह में शामिल हो जाता है। ऐसी पतित अवस्था आ जाने पर भी इनके भगत-रागी श्रावक इनके पंजे में ऐसे जकडे हुए हैं कि इन्हें ही धर्मगुरु मानकर ये लोग जैसा कहते हैं वैसा ही करते हैं। इन्हें प्रत्यक्ष में जानते हुए भी कि वे पतित हैं, भ्रष्टाचारी हैं; उनकी सेवा-भक्ति शुद्ध आचारवाले साधुओं से भी बढ-चढकर करके समाज में अनाचार को प्रोत्साहन देते हैं। कारण यह है कि अधिकतर लोग भोले होते हैं । इस भोलेपन से वे कपटी वेषधारी चैत्यवासी अनेक वाडा-बंधियाँ बनाकर और गच्छ तथा वेष की दुहाई देकर लोगों को ठगने लगे। यह गडबड थोडे ही समय में बहुत बढ़ गई । देवर्द्धिगणि के बाद हरिभद्रसूरि ने महानिशीथ सूत्र का उद्धार करते हुए चैत्यवासियों का अच्छी तरह तिरस्कार किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि निग्रंथ मार्ग विरला प्रायः हो गया। चैत्यवाद की पुष्टि में नये ग्रन्थों की रचना होने लगी। सच्चे साधुओं की अवहेलना के लिये सत्ता का प्रयोग भी होने लगा । राजाओं से ऐसे आज्ञापत्र (पट्टे-परवाने) लिखवा लिये गये कि हमारे पक्ष के यतियों के सिवाय दूसरे यति अथवा संवेगी साधुओं को उनकी वसती के मार्गों में प्रवेश न करने दिया जावे। Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [159]]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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