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________________ पंजाबी संघाडे की उन्नति १४१ दिया। अब मूलचन्दजी महाराज मुनि मुक्तिविजयजी गणि हो गये। मुनि वृद्धिचन्दजी महाराज अस्वस्थ होने से अशक्त होने के कारण तपस्या करने में असमर्थ थे और गुरुदेवश्री बूटेरायजी इस समय पंजाब में होने से दोनों को ऐसा अवसर अभी तक प्राप्त न हुआ । पर मुनिश्री मुक्तिविजयजी को गणिपद मिलने पर गुरुभाई वृद्धिचन्दजी को अपार हर्ष हुआ और गुरुजी ने सुयोग्य शिष्य को पदवी-प्रदान होने पर गौरव का अनुभव किया । ___ पूज्य बूटेरायजी पंजाब से विहार करके वि० सं० १९२८ (ई० स० १८७१) मे अहमदाबाद पुनः पधारे और गणि मूलचन्दजी तथा मुनि वृद्धिचन्दजी भी अपने मुनि-परिवार के साथ आपसे आ मिले । उजमबाई की धर्मशाला में पूज्य बूटेरायजी गणि मूलचन्दजी आदि अपने मुनि-परिवार के साथ विक्रम सं० १९२८ (ई० स० १८७१) का चौमासा करके शहर के बाहर हठीभाई की वाडी में चले गये । मूलचन्दजी महाराज उजमबाई की धर्मशाला में ही विराजमान रहे । मुनि वृद्धिचन्दजी ने यह चौमासा लींमडी में किया । __ गुरुदेव कभी-कभी स्वयं गोचरी के लिये शहर चले जाया करते थे। कभी-कभी मूलचन्दजी अथवा कोई दूसरा साधु शहर से गोचरी लाकर आपको दे जाया करता था। आपने सोचा कि "कुछ दिन शहर में जाकर रह आऊं, फिर वहाँ से वापिस चला जाऊंगा।" दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्य निकलने पर मूलचन्दजी अठारह-उन्नीस साधुओं को साथ लेकर हठीभाई की वाडी में आपके पास आ पहुंचे । जब आप शहर को जाने लगे तब मूलचन्दजी ने कहा कि "गुरुदेव ! आप शहर में क्यों जा रहे हैं ? हम लोग तो आप के पास आये हैं। यहीं रहें और यहीं आहार करियेगा।" Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [141]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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