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________________ १२० सद्धर्मसंरक्षक देवीसहाय से कहा कि "लालाजी ! तुमने बूटेराय का धर्म ग्रहण करके अपने पूर्वजों के धर्म को छोड दिया है। ऐसा करके तुमने बहुत अनुचित किया है। अपने पूर्वजों की इज्जत को बट्टा लगाया है और उनके नाम को कलंकित किया है। बटेराय मति को मानता है, मुँह पर मुँहपत्ती बाँधता नहीं । वह साधु कैसे हुआ ? वह तो गृहस्थी ही हुआ न?" लाला देवीसहायजी ने कहा - "हमारे पूर्वज तो पहले से ही जिनेश्वर प्रभु की मूर्ति की पूजा करते चले आ रहे हैं। उन्हीं का अनुकरण करके हम भी पूजा करते हैं। हमारे नगर में अब भी बडा प्राचीन जिनमन्दिर विद्यमान है, जिसमें तीर्थंकर देवों की प्रतिमाएं विराजमान हैं। हमने धर्म की परीक्षा कर ली है। जैनागमों के लेखानुसार ही (आगमों को वाँच और पढकर) हमने जान लिया है और इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि जिनप्रतिमा पूजना और मुखपत्ती मुख पर न बाँधना शास्त्रसम्मत है। इसलिए बूटेरायजी की श्रद्धा निःसन्देह आगमों के अनुकूल ही है। यही कारण है कि हमारे पिंडदादनखाँ के भाइयों ने मुनि बूटेरायजी को अपना गुरु माना है। यदि तुम लोगों ने भी सत्यधर्म को पाना हो तो उनके साथ धर्मचर्चा करके समझ लो। सत्य-असत्य का निर्णय हो जावेगा।" यह सुनकर अमृतसर के साधुमार्गी श्रावकों ने कहा कि "शाहजी ! बुलाओ बूटेरायजी को, हम चर्चा करने को तैयार हैं। निर्णय के बाद सचझूठ की परीक्षा हो जावेगी । बूटेरायजी को यहां बुलाओ।" तब लाला देवीसहायजी ने कहा कि "तुम लोग अपने अमरसिंह आदि साधुओं के साथ बूटेरायजी की चर्चा कराकर निर्णय कर सकते हो। यदि हमारी श्रद्धा खोटी होगी तो हम आप की श्रद्धा मान लेंगे। यदि तुम्हारी श्रद्धा खोटी होगी तो तुम अपना हठ छोडकर पूज्य Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [120]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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