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________________ १०४ सद्धर्मसंरक्षक पालीताना पधारे और दूसरी बार सिद्धगिरि की यात्रा का लाभ लिया। कई दिन यहाँ स्थिरता करने के बाद मुनि वृद्धिचन्दजी का विचार श्रीगिरनारजी की यात्रा करने का हुआ और गुरुमहाराज की आज्ञा लेकर अपने गुरुभाई मुनि प्रेमचन्दजी को साथ लेकर दोनों ने जूनागढ की तरफ विहार किया। श्रीबूटेरायजी महाराज अपने शिष्य मुनिश्री मूलचन्दजी को साथ लेकर बोटाद होते हुए लींबडी पधारे । जूनागढ की तरफ जाते हुए मार्ग में मुनि प्रेमचन्दजी के साथ मुनि वृद्धिचन्दजी का प्रतिक्रमण की क्रिया सम्बन्धी मतभेद खडा हो गया । मुनि प्रेमचन्दजी की श्रद्धा खरतरगच्छ की विधि से प्रतिक्रमण करने की थी और मुनि वृद्धिचन्दजी की श्रद्धा भावनगर में गुरुमहाराज के साथ निर्णीत हुए विचार के अनुसार तपागच्छ की विधि से प्रतिक्रमण करने की थी। इस मतभेद के कारण दोनों अलग हो गये । जुदा जुदा रास्तों से दोनों ने अलग अलग विहार किया । बिना जाने-पहचाने देश और क्षेत्र होने के कारण रास्ते में बहुत परेशानी उठानी पडी। पूछते पूछते जूनागढ जा पहुंचे । उस समय अहमदाबाद से एक संघ वहा पर आया हुआ था और उसके साथ मुनि केवलविजयजी तथा मुनि तिलकविजयजी नाम के दो साधु भी थे। मुनि वृद्धिचन्दजी भी उनके साथ रहने के लिये जहाँ संघ का पडाव था वहाँ आये और आहार-पानीपूर्वक दोनों मुनियों के साथ वहाँ रहे । मुनि प्रेमचन्दजी भी उसी दिन जूनागढ पहुंचे और वृद्धिचन्दजी की खोज करके उनके साथ ही आकर उतरे । मुनि वृद्धिचन्दजी ने भी बिना किसी भेदभाव के और मन पर किसी भी प्रकार का आवेश लाये बिना पूर्ववत् आहार-पानी द्वारा अपने बडे गुरुभाई की भक्ति की। Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5 [104]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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