SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीसिद्धगिरी की यात्रा ९५ वैसे ही नाम से भी गुरुजी शब्द के अपभ्रंश रुप में 'गोरजी' कहलाने लगे थे । महाव्रतों का उच्चारण करके मुनि की दीक्षा लेकर मठधारी बन चुके थे। महाव्रतों के पालन करने में मंद तो थे ही, परन्तु ज्ञान में भी मंद हो चुके थे । वैद्यक और मंत्र-यंत्र-तंत्र से भोले लोगों को अपने अनुरागी बनाने का धंधा ले बैठे थे । श्रावक-श्राविकाओं की बेसमझी के कारण अपने अयोग्य आचारों में वृद्धि पाते जा रहे थे । महाव्रतों में वे एकदम शिथिल थे। ऐसा होते हुए भी यदि ये लोग ज्ञानउपार्जन की प्रीतिवाले बने रहते, तो जैन समाज में शास्त्री-पंडित बनकर शासन को कुछ लाभकारी हो सकते थे । पर ज्ञान तथा आचार शून्य होने के कारण इन लोगों के पतन का समय आया । दोनों पंजाबी मुनियों के पधारने से इन के उपदेश से भावनगर का श्रावक वर्ग धीरे-धीरे आकर्षित होने लगा और यतियों पर से राग कम होने लगा । मुनि श्रीवृद्धिचन्दजी ने गुरुमहाराज को पालीताना में समाचार भेजे कि "भावनगर चौमासा करने के लिये योग्य क्षेत्र है, इसलिये आप यहाँ पधारने की कृपा करे ।" महाराज श्रीबूटेरायजी भी भावनगर में पधार गये । वि० सं० १९११ ( ई० १८५४) का चातुर्मास तीनों मुनियों (श्रीबूटेरायजी, श्रीप्रेमचन्दजी, श्रीवृद्धिचन्दजी) का भावनगर में हुआ । स० मुनि श्रीमूलचन्दजी ने अखयचन्द यति से अभ्यास करने के लिये वि० सं० १९११ का चौमासा पालीताना में किया । इस चातुर्मास में कोई-कोई श्रावक आपके अनुरागी बने । Shrenik / D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [95]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy