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________________ वस्तुतः उसे पाना नहीं है। क्योंकि वह तो सदा से उपलब्ध ही है, केवल प्रत्येक को अपनी दृष्टि इंद्रियों के भोग से हटा कर भीतर के जगत में ले जाकर उसके दर्शन करने हैं । ' संत तारण तरण को पढ़ कर संत अगस्तीन के इन अमर शब्दों का स्मरण हो आता है: 'सारी दुनिया में भटक ले, पर यदि सत्य को पाना है तो तुझे अपने पर ही लौट कर आना होगा।' संत तारण तरण की वाणी में 'आत्मा-स्थित' होने के सिद्धांत को केंद्रस्थ माना जा सकता है । सत्य आंतरिक है, इससे उसका उदघाटन भी आंतरिक ही हो सकता है। बाहर केवल भटकन है, अशांति है, असंतोष है, अतृप्ति है। और भीतर ? ईसा ने कहा था न कि प्रभु का राज्य तेरे भीतर है। वही संत तारण तरण ने भी कहा है। उनके शब्द हैं कि आत्मा में स्थिर होकर ही तू धर्म बनेगा, सत्य बनेगा और उस अनंत रहस्यानंद का रसानुभव कर सकेगा जो कि सदा ही तेरे भीतर हिलोरें ले रहा है। संत तारण तरण ने इसी रहस्यानंद को अपने विशाल अमृत - साहित्य में व्यक्त किया है। उनका एक-एक शब्द उनकी अनुभूति के अलौकिक प्रकाश से जगमग है। आत्मा पढ़ कर आनंदविभोर हो उठती है । उनकी वाणी हृदय की वीणा पर बजने लगती है और एक नया अपरिचित फिर भी सदा से सुपरिचित सा जगत भीतर अपने द्वार खोलने लगता है। श्रद्धा, भक्ति और स्नेहसिक्त मन से सभी संतों के द्वार पहुंचने पर ऐसा ही अनुभव होता है। संत का जीवन और उसकी वाणी हमें अपने ही भूले हुए देश की याद दिलाती है। इससे एक ओर मन दुख और पश्चात्ताप से भर जाता है: यह देख कि हम क्या हैं और क्या हो गए हैं, तो दूसरी ओर एक आनंद सागर भी अपने अनंत विस्तार को लिए मन में लहरें लेने लगता है: इस आश्वासन को पा कि हम आज भले कुछ हों, लेकिन प्रयास करने पर प्रभु का राज्य भी हमारा ही हो सकता है। संत तारण तरण ने आत्मा को 'समय' की उपमा दी है। समय की कह कर उन्होंने भीतर की चेतन सत्ता को पुकारा है क्योंकि वह समय की भांति ही आदि - अंतहीन और समयातीत है। उसके रहस्यों और आनंद को कभी पूरा नहीं किया जा सकता है। उसमें खोकर बस खोते ही चले जाना होता है। आनंद के नये क्षितिज खुलते चले जाते हैं और आत्मा निरंतर शुद्ध से शुद्ध होकर प्रकाशवान होती जाती है। इस शुद्धात्मा में ही शांति है और दुख - समूह का अंत है। इस शुद्धात्मा को ही पा लेना मानव जीवन को सार्थक बनाना है। संत तारण तरण आत्मवादी संत थे। इससे उनका संदेश आत्मा-केंद्रित है। उनके समग्र दर्शन को तीन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, पहला शब्द है आत्म-ज्ञान, दूसरा शब्द है आत्म-ज्ञान, तीसरा शब्द भी है आत्म-ज्ञान । आत्म-ज्ञान की वह आधारशिला है जिस पर मुक्ति का भवन खड़ा किया जा सकता है। आत्मा पृथक किसी अन्य परमात्मा का अस्तित्व उन्होंने नहीं माना है। आत्मा ही अपने शुद्ध रूप में परमात्मा हो जाती है। उन्होंने कहा है: आत्मा ही अपनी पवित्र अवस्था में परमात्मा है । वही देव है, वही गुरु है, वही शास्त्र है, वही धर्म है और वही तीर्थ है। मैं देव, गुरु, शास्त्र, धर्म और तीर्थ के इस पावन प्रतीक को तीनों काल नमस्कार करता हूं। उनका संदेश है कि सर्व व्याप्त आत्मा की सेवा और स्वयं में व्याप्त आत्मा का ज्ञान ही 211
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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