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________________ व्यवहार-शुद्धि का बहुत विचार चलता है। मैं जैसा देखता हूं, वह पकड़ और पहुंच उलटी है। व्यवहार नहीं, सत्व-शुद्धि करनी होती है। व्यवहार तो अपने से बदल जाता है। वह तो सत्व का अनुगामी है। ज्ञान परिवर्तित हो तो आचार परिवर्तित हो जाता है। ज्ञान ही आधार और केंद्रीय है। व्यवहार उसी का प्रकाशन है। वह प्राण है, आचार उसका स्पंदन है। साक्रेटीज का वचन है : ज्ञान ही चरित्र है-नालेज इज़ व→। ज्ञान से अर्थ जानकारी, इनफर्मेशन और पांडित्य का नहीं है। ज्ञान से अर्थ है प्रज्ञा का, सत्व, सत्ता के साक्षात से उत्पन्न बोध, कांशसनेस का। यह बोध, यह जागरूकता, यह प्रज्ञा ही क्रांति, ट्रांसफार्मेशन है। तथाकथित विचार-संग्रह से उत्पन्न ज्ञान इस क्रांति को लाने में असमर्थ होता है, क्योंकि वस्तुतः वह ज्ञान ही नहीं है। वह नगद और स्वयं का नहीं है। वह है उधार, वह है अन्य की अनुभूति से निष्पन्न और इस कारण मृत और निष्प्राण है। आत्मानभति हस्तांतरित होने में मत हो जाती है। उसे जीवित और सप्राण हस्तांतरित करने का कोई उपाय नहीं है। सत्य नहीं, केवल शब्द ही पहुंच पाते हैं। इन शब्दों पर ही आधारित जो ज्ञान है, वह बोझ तो बढ़ा सकता है, मुक्ति उससे नहीं आती है। मैं जिस ज्ञान को क्रांति कह रहा हूं, वह पर से संगृहीत नहीं, स्व से जाग्रत होता है। उसे लाना नहीं, जगाना है। उसका स्वयं में आविष्कार करना है। उसके जागरण पर आचार साधना नहीं होता है, वह आता है, जैसे हमारे पीछे हमारी छाया आती है। आगम इसी ज्ञान को ध्यान में रख कर कहते हैं : पढमं नाणं तओ दया। पहले ज्ञान है, तब अहिंसा है, तब आचरण है। ____ यह केंद्र के परिवर्तन से परिधि को परिवर्तित करने की विधि है। यही सम्यक विधि है। इसके विपरीत जो चलता है, वह बहुत मौलिक भूल में है। वह निष्प्राण से प्राण को परिवर्तित करने चला है, वह क्षुद्र से महत को परिवर्तित करने चला है, वह शाखाओं से मूल को परिवर्तित करने चला है। वैसे व्यक्ति ने अपनी असफलता के बीज प्रारंभ से ही बो लिए हैं। यह स्वर्ण-सूत्र स्मरण रहे कि आचार से सत्ता परिवर्तित नहीं होती है, सत्ता से ही आचार परिवर्तित होता है। सम्यक ज्ञान सम्यक आचार का मूलाधार है। इससे ही हरिभद्र यह कह सके हैं : आत्मा अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा, क्योंकि आत्मा की अप्रमत्तता से ही अहिंसा फलित होती है और प्रमत्तता से हिंसा। _आया चेव अहिंसा, आया हिंसति निच्छओ अस। जो होई अप्पमत्तो अहिंसओ, हिंसओ इयरो।। मैं यदि आत्म-जाग्रत, अप्रमत्त, अमूर्च्छित हूं, तो मेरा जो व्यवहार है, वह अहिंसा है। मैं यदि स्वस्थित हूं, स्थितप्रज्ञ हूं, ब्रह्मनिमज्जित हूं, तो जीवन-परिधि पर मेरा जो परिणमन है, वह अहिंसा है। अहिंसा प्रबुद्ध चेतना की जगत तल पर अभिव्यंजना है। अहिंसा आनंद में प्रतिष्ठित चैतन्य का आनंद प्रकाशन है। दीए से जैसे प्रकाश झरता है, ऐसे ही आनंद को उपलब्ध चेतना से अहिंसा प्रकीर्णित होती है। वह प्रकाशन किसी के निमित्त नहीं है, किसी के लिए नहीं है। वह सहज है और स्वयं है। वह आनंद का स्वभाव है। एक साधु के जीवन में मैंने पढ़ा है। किसी ने उससे कहा था, शैतान को घृणा करनी 198
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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