SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सीमित नहीं रहते हैं, उनकी प्रतिध्वनियां दूर दिगंत तक सुनी जाती हैं। व्यक्ति में जो घटित होता है, वह बहुत शीघ्र अनंत में परिव्याप्त हो जाता है। व्यक्ति और विराट के बीच वस्तुतः सीमाएं नहीं हैं। वे अनंत मार्गों से संबंधित और अंतः-संवादित हैं। ___ मैं दुखी हूं, तो मैं दुख देने वाला हूं। न चाहूं, तब भी प्रतिक्षण मुझसे वह प्रवाहित हो रहा है। वह विवशता है। क्योंकि जो मेरे पास है, वही तो मैं दे सकता हूं; जो मेरे स्वयं के ही पास नहीं है, उसे चाह कर भी तो नहीं दिया जा सकता है। संबंधों में हम आकांक्षाओं को नहीं, अपने को ही देते हैं। शुभ आकांक्षाएं ही नहीं, मेरा शुभ होना आवश्यक है। मंगल कामनाएं ही नहीं, मेरा मंगल होना आवश्यक है। स्वप्न नहीं, सत्ता ली-दी जाती है। इससे कितने ही लोग चाह कर भी न किसी को आनंद, न शांति, न प्रेम ही दे पाते हैं। उनकी शुभाकांक्षाएं असंदिग्ध हैं, पर उतना ही पर्याप्त नहीं है। उनके स्वप्न सच ही सुंदर हैं, पर सत्ता के जगत में उनका प्रभाव पानी पर खींची गई रेखाओं से ज्यादा नहीं है। उनसे काव्य तो बन सकता है, पर जीवन अस्पर्शित रह जाता है। हम देना चाहते हैं आनंद-और कौन नहीं देना चाहता है—पर दे पाते हैं दुख और विषाद। देना चाहते हैं प्रेम और जो दे पाते हैं, उसमें कहीं दूर भी प्रेम की ध्वनि नहीं सनाई पड़ती है। और तब कैसी एक रिक्तता, एम्पटीनेस, कैसी एक असफलता, फ्रूटलेसनेस, कैसी एक व्यर्थता अनुभव होती है! कैसा सब हारा हुआ और पराजित लगता है! पराजय के इन क्षणों में सब दिशा-सूत्र खो जाते हैं, सब प्रयोजनवत्ता खो जाती है, सब अर्थ खो जाता है। शेष रह जाता है एक अवसाद और अकेलापन, लोनलीनेस, जैसे हम जगत में अकेले ही छूट गए हों। इन क्षणों में अपनी असमर्थता, इम्पोटेंस और असहायावस्था दिखती है। शुभाकांक्षाओं के, स्वप्नों के अनुकूल परिणाम नहीं आते हैं, क्योंकि सत्ता उनके प्रतिकूल होती है। इससे जीवन-सरिता सार्थकता और कृतार्थता के सागर तक पहुंचती ही नहीं, व्यर्थता और अतृप्ति, फ्रस्ट्रेशन के मरुस्थल में विलीन और अपशोषित होती मालूम होती है। अर्थहीनता-बोध की इस मनःस्थिति में यदि थोड़ी सी भी अमूर्छा, अवेयरनेस हो, तो एक अत्यंत बद्धमूल भ्रम भंग हो सकता है। और उस भ्रम-भंगता के आलोक, डिसइल्यूजनमेंट में व्यक्ति जीवन के एक आधारभूत सत्य के प्रति जाग सकता है। उस विद्युत आलोक में दिख सकता है कि जीवन की अंतस-सत्ता से अर्थहीनता पैदा नहीं होती है। अर्थहीनता पैदा होती है इस भ्रांत धारणा से कि जो स्वयं के पास ही नहीं है, उसे भी किसी को दिया जा सकता है; इस अज्ञान से कि जो सुगंध मुझ में ही नहीं है, वह भी संप्रेषित की जा सकती है। यह अज्ञान बहुत मूलव्यापी है। प्रेमशून्य प्रेम देना चाहते हैं; आनंदरिक्त आनंद वितरित करना चाहते हैं; दरिद्र समृद्धि दान करने के स्वप्नों से पीड़ित और आंदोलित होते हैं। __ मैं देखता हूं कि जो स्वयं के पास नहीं है, उसे दिया भी नहीं जा सकता है। इसे सिद्ध करने को किसी तर्क और प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। यह तो सूरज की भांति साफ और स्पष्ट है। शायद सूरज से भी ज्यादा स्पष्ट है, क्योंकि आंखें न हों तब भी तो इसे देखा जा सकता है। किंतु यह सिक्के का एक ही पहलू है। एक दूसरा पहलू भी है। वह तो और भी आंखों से ओझल हो गया है। 196
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy