SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जमीन ऐसे धर्मों से भरी है जो सुख की खोज की आकांक्षा के किनारे पर संयोजित किए गए हैं। और यही वजह है-खयाल रखें, यही वजह है कि एक धर्म दूसरे धर्म से लड़ता है। सत्य की खोज हो तो इस दुनिया में किसी से लड़ाई का कोई कारण नहीं है। लेकिन अगर सुख की खोज हो तो लड़ाई तो जरूरी है। क्योंकि सुख में तो छीना-झपटी करनी होती है। सुख की खोज में तो काम्पिटीशन होगा, प्रतियोगिता होगी। अगर हम इतने सारे लोग सुख की खोज करेंगे तो सब एक-दूसरे के दुश्मन हो जाएंगे और सुख की खोज करेंगे, क्योंकि हमें सुख छीनना पड़ेगा। सत्य किसी से छीनना नहीं पड़ता। सत्य की खोज वैयक्तिक है. कोई प्रतिस्पर्धा, कोई काम्पिटीशन नहीं है। किसी से कोई झगड़ा, कोई संघर्ष नहीं है। लेकिन सुख की खोज झगड़ा है, युद्ध है। इसलिए बहुत ठीक से समझेंगे तो जो सुख का आकांक्षी है, वह अहिंसक नहीं हो सकता। क्योंकि सुख की आकांक्षा में ही हिंसा छिपी हुई है। उसका तो वायलेंस होगी ही उसके मन में, नहीं तो वह दूसरे से सुख छीनेगा कैसे! सुख की आकांक्षा में हिंसा छिपी है और सत्य की आकांक्षा में अहिंसा का जन्म हो जाता है। महावीर को दिखाई पड़ गया कि सुख की आकांक्षा व्यर्थ है। क्योंकि सुख एक दुख का छिपा हुआ रूप है। सुख भी एक अशांत स्थिति है। सुख भी मन की शांत, अनुत्तेजित दशा नहीं है। जब आप सुख में होते हैं, तो मन आंदोलित हो जाता है। वह भी चित्त की सहज अवस्था नहीं है, चित्त आंदोलित हो रहा है। चित्त की सहज अवस्था तो वही है जहां कोई भी आंदोलन न हो, जहां चित्त शांत और संयत हो। जहां चित्त ऐसे हो जैसे हमने किसी भवन में सारे द्वारदरवाजे बंद कर दिए हों और दीये को जलाया हो। कोई हवा का झोंका न आता हो, और दीये की अकंप लौ जलती हो। वैसी जब चित्त की स्थिति होती है अकंप और उसमें कोई कंपन नहीं होते, वैसी अकंप स्थिति को शांति कहा है। वैसी अकंप स्थिति को! ___ तो वैसी अकंप स्थिति न तो सुख में होती है और न दुख में होती है। दुख की हवाएं भी कंपा जाती हैं और सुख की हवाएं भी कंपा जाती हैं। वे एक ही तरह की हवाएं हैं। हम जब उन्हें प्रेम करते हैं या प्रेम करने की भूल में होते हैं तो सुख कहते हैं और जब उन्हें प्रेम नहीं करते तो उन्हें दुख कहने लगते हैं। वे हवाएं तो एक ही हैं। वही हवा कभी हमें सुख जैसी लगती है और वही हवा कभी दुख जैसी लगती है। लेकिन दोनों स्थितियों में चाहे सुख लगे चाहे दुख, चित्त कंप जाता है। चित्त का कंपन, बहुत गहरे में समझिए तो चित्त का कंपन ही आध्यात्मिक पीड़ा है, आध्यात्मिक दुख है। आंतरिक दुख है चित्त का कंपन और अगर चित्त निष्कंप हो जाए तो आंतरिक आनंद उपलब्ध होता है। अब यह फर्क समझ लेना आप! बाहरी कंपन प्रीतिकर लगे तो सुख मालूम होता है, बाहरी कंपन अप्रीतिकर लगे तो दुख मालूम होता है। और जैसा मैंने कहा, ये दोनों कंपन एक ही जैसे हैं, हमारी व्याख्या का, देखने की दृष्टि भर का भेद है। लेकिन अगर कंपन भीतर मालूम हो-तो कंपन दोनों स्थितियों में मालूम होगा, सुख में भी और दुख में भी-कंपन अगर मालूम हो तो कंपन आंतरिक दुख है, आंतरिक पीड़ा है, आंतरिक संताप, एंग्विश और एंग्जाइटी की स्थिति है। वह आंतरिक पीड़ा और चिंता है, अगर कंपन है। और अगर चित्त निष्कंप है तो वह आंतरिक आनंद है। 163
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy