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________________ मेरे एक मित्र हैं। कोई आठ-दस वर्ष पहले उनके पास लाख या डेढ़ लाख रुपये थे, वे बहुत खुश थे। काफी था उनके पास, अकेले हैं, कोई बच्चा नहीं है। बहुत था, तृप्त थे। फिर दुर्भाग्य से संपत्ति बढ़नी शुरू हुई। संपत्ति उनके पास ज्यादा हो गई। अब फिर सौभाग्य से संपत्ति कम हुई और वे फिर डेढ़ लाख के करीब आकर रुक गए। डेढ़ लाख पर दस वर्ष पहले वे खुश थे, डेढ़ लाख पर आज बहुत दुखी हैं। डेढ़ लाख की संपत्ति वही की वही है। एक दिन डेढ़ लाख उनके लिए बहुत थे। फिर उनके पास पांच लाख हो गए, तो डेढ़ लाख ना-कुछ हो गए। अब फिर कुछ रुपये खो गए, डेढ़ लाख बच गए। अब वे बहुत दुखी हैं। तो मैंने उनसे कहा, मैं कुछ परेशान हूं, डेढ़ लाख सुख देते थे दस साल पहले, वही डेढ़ लाख कष्ट देते हैं। डेढ़ लाख सुख देते हैं कि दुख देते हैं? हमारे देखने का कोण है, हमारी देखने की दृष्टि है। जिस चीज में आज सुख लेती है, कल उसी चीज में दुख ले सकती है। एक नये मकान में कोई व्यक्ति जाए। नया मकान बड़ा सुख देता है। लेकिन क्या उसे पता है कि जिस पुराने में वह पहली दफा गया था तब वह नया था और उसने सुख दिया था! और क्या उसे पता है कि जिस पुराने को वह छोड़ कर आया है, कल यह नया भी पुराना हो जाएगा! यही का यही मकान होगा और कल यह पुराना हो जाएगा। और तब दूसरा नया सुख देगा। हम जिन चीजों से सुख लेते हैं उन्हीं से दुख ले लेते हैं, जिन से दुख लेते हैं उन्हीं से सुख ले लेते हैं। तो सुख और दुख में कोई बहुत बुनियादी भेद नहीं हो सकता। वे कुछ एक ही सिक्के के दो पहलू होंगे। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मेरी दृष्टि में महावीर को यह दिखाई दिया और जिसके पास भी आंख होगी उसे यह दिखाई देगा। और यह जैसे ही दिखाई देगा उसे यह खयाल में आ जाएगा कि दुख भी एक अशांति है। चित्त विह्वल हो जाता, चित्त उद्वेलित हो जाता है। चित्त कंपने लगता है, पीड़ा से भर जाता है। कंपन और आंधी चित्त पर आ जाती है। और सुख भी एक अशांति है, वहां भी चित्त कंप जाता है। वहां भी कंपन आ जाता है। एक अशांति वहां भी आ जाती है। फर्क क्या है? जिस अशांति को हम प्रीतिकर मानते हैं वह सख मालम होती है और जिस अशांति को हम अप्रीतिकर मानते हैं वह दुख मालूम होती है। दोनों अशांतियां हैं। न तो दुख और न सुख, दोनों ही शांति नहीं हैं। दोनों का ही रूप अशांति का है। फिर जिसकी तरफ हमारी दृष्टि होती है कि यह प्रीतिकर है...। एक गांव में एक रात संध्या को एक आदमी आया। उसने अपना घोड़ा बांधा और सो गया। ऐसा कुछ घोड़ा था उसके पास कि दूर-दूर तक उसकी ख्याति थी। चोर उस घोड़े के पीछे लगे थे। बड़े-बड़े राजा और बड़े-बड़े सम्राट उत्सुक थे कि घोड़ा उनका हो जाए। रात वह सवार सोया। सुबह उसने देखा घोड़ा नदारद है, घोड़ा वहां नहीं है। आप होते तो क्या करते? कोई भी होता तो क्या करता? लेकिन वह आदमी दौड़ा और गांव के लोगों ने देखा उसकी खुशी का अंत नहीं है, वह गांव में गया। उसने जितनी मिठाई मिल सकती थी खरीदी और सारे गांव में प्रसाद बांटा। लोगों ने पूछा, क्या खुशी की बात हो गई है? कैसे पागल हुए जा रहे हो? उसने कहा, रात मेरा घोड़ा चोरी चला गया। उसकी खुशी में प्रसाद बांटता हूं। 158
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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