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________________ धर्म नहीं पाया जा सकता, धर्म किसी से भिक्षा में नहीं पाया जा सकता–जिन्होंने यह कहा, उनके भक्त उनकी ही मूर्तियों के सामने हाथ जोड़े खड़े हुए हैं और उनसे प्रार्थना कर रहे हैं कि वे कुछ दे दें! जिन्होंने कहा, कुछ भी नहीं दिया जा सकता, जो भी लेना हो छीनना होगा; जो भी लेना हो पराक्रम से, अपने पराक्रम से पाना होगा। यह बड़े गौरव की बात उन्होंने कही। मनुष्य के संबंध में बड़े गौरव की और बड़ी गरिमा की बात उन्होंने कही। इससे बड़ा सम्मान मनुष्य का कभी नहीं हुआ है। अगर मुझसे कोई कहे कि हम तुम्हें यह सत्य दिए देते हैं, तुम्हें कुछ न करना पड़ेगा, तो मैं उससे कहूंगा, ऐसे सत्य को मैं लूंगा कैसे! जिस सत्य के लिए मुझे कुछ न करना पड़ा हो, उसे केवल नपुंसक स्वीकार कर सकेंगे, पुरुषार्थहीन स्वीकार कर सकेंगे। जिनकी जीवन की सारी ऊर्जा बुझ चुकी है, वे स्वीकार कर सकेंगे। और ऐसा उधार और भिक्षा में पाया गया सत्य क्या जीवंत हो सकता है? क्या ऐसी चीज जीवन को प्रकाश और ज्योति से भर सकती है? महावीर ने कहा, सत्य कहीं भिक्षा से नहीं मिलेगा, सत्य के लिए तो आक्रमण करना होगा। सत्य के लिए भिक्षु नहीं, क्षत्रिय होना पड़ेगा। आज तक जगत में जिन्होंने भी सत्य को पाया हो, उन सबको क्षत्रिय हो जाना पड़ेगा। क्षत्रिय का अर्थ है, उन्हें तो अपने श्रम की तलवार के बदौलत, अपने पराक्रम से, अपनी चेष्टा से पाना होगा। और इसलिए महावीर की परंपरा श्रमण परंपरा कहलाई। इसलिए महावीर उदघोषक कहलाए इस अदभुत मानवीय गरिमा के कि उन्होंने मनुष्य को इस बात का स्वाभिमान दिया कि तुम सत्य को मांगो मत, सत्य को जीतो। सत्य को मांगो मत, सत्य के लिए जीतो। सत्य के लिए स्तुतियां मत करो, सत्य के लिए संघर्ष करो। सत्य के लिए लड़ो, सत्य के लिए अपना बलिदान दो, सत्य के लिए अपने को समर्पित करो। जिस मात्रा में जो अपने को देने को राजी होगा, उसी मात्रा में सत्य पर उसका अधिकार सुनिश्चित होता है। इस बात को महावीर ने तपश्चर्या कहा। तपश्चर्या का अर्थ है : इंच-इंच अपने को देना सत्य को पाने के लिए। जिस दिन व्यक्ति अपने को समग्रतया देने में समर्थ हो जाता है, उस दिन वह समग्र सत्य को उपलब्ध भी हो जाता है। अपने को देना और सत्य को पा लेना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए सत्य की फिकर छोड़ दे कोई आदमी और अपने को देने की फिकर कर ले। अपने को देने का मतलब क्या है? क्या आप सोचते हैं, घर-द्वार छोड़ कर भाग जाएं, तो आपने अपने को दिया? क्या आप सोचते हैं कि पत्नी और बच्चों को छोड़ कर भाग जाएं, तो आपने अपने को दिया? क्या आप सोचते हैं, अपनी संपत्ति और पद छोड़ कर चले जाएं, तो आपने अपने को दिया? __ यह अपने को देना नहीं है। क्योंकि पद का क्या मूल्य था? धन का क्या मूल्य था? धन का मूल्य था कि उससे मेरी अहंता तृप्त होती थी। पद का मूल्य था कि मेरा अहंकार उससे बलिष्ठ होता था। अगर धन को छोड़ कर मेरे मन में त्याग का अहंकार पैदा हो गया हो, तो धन छोड़ना व्यर्थ हो गया। अगर पद को छोड़ कर मेरे मन में त्यागी होने का दंभ पैदा हो गया हो, तो पद को छोड़ना व्यर्थ हो गया।
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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