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________________ लड़का भी मर गया। तीसरी पीढ़ी आ गई, लेकिन पत्थर वहीं है। आगे का मुझे पता नहीं है। जहां तक सौ में निन्यानबे मौके हैं, पत्थर अभी भी वहीं होगा, क्योंकि वह महमूद ने गिरवाया था। जीवन के सहज कृत्य, जिनका उस क्षण में कोई मूल्य होता है, पीछे चलने वाले पागल की तरह पकड़ लेते हैं और फिर उन्हीं के साथ बंधे रह जाते हैं, उन्हीं के साथ बंधे रह जाते हैं और उन्हीं को साधना बना लेते हैं। किसी महापुरुष के जीवन को समझिए जरूर, अनुयायी कभी मत बनिए। समझिए; उसके जीवन में प्रवेश करिए; उसके जीवन के दबे हुए पर्दे उघाड़िए, खोलिए राज; पहचानिए उसकी आत्मा को; उतरिए शब्दों के भीतर, हटाइए सिद्धांतों को; जाइए उसके व्यक्तित्व में, उसके मनस में, उसकी साइकोलॉजी में। अनुयायी मत बनिए, सिर्फ प्रवेश करिए। और आप हैरान होंगे, किसी भी महापुरुष की आत्मा से एनकाउंटर, साक्षात्कार आपकी आत्मा को बदलने के लिए, आपकी अपनी आत्मा में क्रांति लाने के लिए एक अनूठी प्रेरणा बन कर उपस्थित हो जाता है। अनुयायी बनने की कोई भी जरूरत नहीं है। किसी के पीछे जाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि हर आदमी को अपने भीतर जाना है, किसी के पीछे नहीं जाना है। लेकिन अपने भीतर जाने के लिए जो लोग अपने भीतर गए हों, उनके जीवन के रास्ते को ठीक से जानना और पहचानना। और केवल वही पहचान सकता है, जिसे अनुयायी बनने की जल्दी न हो; क्योंकि अनुयायी बनने की जल्दी में विचार करना संभव नहीं होता। पक्षपात, संप्रदाय के भाव से, सामर्थ्य, समझ की, साक्षी बनने की, नहीं होती। फिर तो जल्दी पकड़ कर अनुगमन करने का भाव होता है कि जैसा वे करते हैं, वैसा हम करें। उनके सहज कृत्य हमारे लिए साधना बन जाते हैं। सीधी सी बात समझ लें, महावीर हैं निर्दोष, सीधे, बच्चे जैसे सरल-तरल, ऐसा व्यक्तित्व है उनका। साधक, महायोगी, योगी, महान तपस्वी, बारह वर्ष तक तपश्चर्या कर रहे हैं, भारी पराक्रम कर रहे हैं। इन सारी बातों में हमने उनके व्यक्तित्व की जो सहजता, उसको जीर्ण-शीर्ण कर दिया, और एक ऐसा व्यक्तित्व खड़ा कर लिया जो हमारा देखा हुआ ढांचा तो है लेकिन महावीर की आत्मा नहीं। ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। मेरी बातें हो भी सकती हैं सब गलत हों। क्योंकि महावीर से मेरा मिलना नहीं हुआ, कोई बातचीत नहीं हुई। हो सकता है यह मेरे देखने का ढंग हो, यह मेरी अपनी दृष्टि हो। लेकिन मैं मजबूर हूं। महावीर को मैं वैसा ही तो देख सकता हूं, जैसा मैं देख सकता हूं। तो जो मैंने कहा, कोई जरूरी नहीं है कि उसमें सोचने-विचारने जाएं कि शास्त्र में लिखा है कि नहीं लिखा है। यह मेरी अपनी सोचने की दृष्टि हो सकती है। आप से मेरा यह भी आग्रह नहीं है कि मेरी बात को सच मान लें। कोई आग्रह नहीं। मैंने ये बातें कहीं। आपने सुनीं। इतना काफी है। ___ इनको थोड़ा सोच और लें तो काफी से थोड़ा ज्यादा हो जाएगा। उतनी कृपा बहुत है कि इन पर थोड़ा सोचें, विचार करें। महापुरुष को हम अपने बंधे हुए ढांचों में नहीं बांधे, मुक्त करें। और उस मुक्त चेतना के साथ खुले आकाश में उड़ें। 127
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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