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________________ हमारी हंसी एस्केप है, भुलाती है। लेकिन इस डर से कि कहीं हमारी हंसी के कारण महापुरुष छोटा न हो जाए, तो महापुरुष में हंसी ही पोंछ देते हैं, मिटा देते हैं, समाप्त कर देते हैं । महापुरुष हंसता ही नहीं ! उसकी मूर्ति बना देते हैं गुरु-गंभीर। वह बच्चे जैसा सहज नहीं मालूम पड़ता; वह बनावटी, बैठा हुआ ढोंगी मालूम पड़ने लगता है। महावीर रहे होंगे बच्चे जैसे सहज, क्योंकि इतने जीवन के सत्य को जानने वाला बच्चे जैसा सरल हो जाता है। लेकिन क्या हमारी बनाई हुई तस्वीर से वे बच्चों जैसे सरल मालूम होते हैं? नहीं; हमारी तस्वीर में तो वे बड़े जटिल, बड़े सधे हुए मालूम होते हैं । हमारी मूर्ति में तो - वह हमारी बनाई हुई मूर्ति है - बिलकुल सधे हुए मालूम पड़ते हैं, बिलकुल तैयार मालूम पड़ते हैं। सरलता नहीं दिखाई पड़ती, वह बच्चे जैसा भाव नहीं दिखाई पड़ता, वे बच्चे जैसे हंसते हुए नहीं मालूम पड़ते। हंसे होंगे जरूर, क्योंकि अगर महावीर बच्चों जैसे नहीं हंस सकते तो कौन हंसेगा? अगर उतनी इनोसेंस, अगर उतना निर्दोष उस आदमी में नहीं आ सकता, और मैं मानता हूं कि जरूर आया होगा, क्योंकि महावीर नग्न हो गए बच्चों जैसे, खड़े हो गए सरल, सहज, स्पांटेनिअस। हंसे होंगे, खूब हंसे होंगे। लेकिन हमारा भय - हमारा भय... । मैं एक जगह एक घर में ठहरा हुआ था। घर के लोग मुझसे अपरिचित थे। सांझ हम बैठे थे। घर के दो-चार बच्चे थे, पत्नी थी, पति थे, गपशप होती थी, मैं खूब हंस रहा था। तभी घर वृद्ध बाहर से आकर कहा, हंसिए मत, दो-चार लोग आ रहे हैं। ने तो मैंने कहा, क्या बात है? उन्होंने कहा, वे क्या कहेंगे कि आप और हंसते हैं? वे आपको एक महान संन्यासी समझ कर दर्शन करने आ रहे हैं। तो मैंने कहा, हद हो गई। जब तुम जिंदा आदमी से कह सकते हो कि मत हंसो, तो तुमने मर गए तीर्थंकरों और महावीरों के साथ क्या किया होगा, कहना बहुत मुश्किल है। क्योंकि अब तो वे बेचारे इनकार भी नहीं कर सकते कि नहीं, हम हंसेंगे । हमने ढाल ली है तस्वीर । सरलता को हमने जटिल ढांचे में खड़ा कर दिया है। महावीर का तीसरा सूत्र और अंतिम बात आपसे कहूं। पहली बात मैंने कही, त्याग नहीं, ज्ञान; दुख नहीं, आनंद। और तीसरी बात आपसे कहना चाहता हूं: सधा हुआ साधना का व्यक्तित्व नहीं; सहज, सरल, जल की भांति तरल । सधा हुआ, कल्टीवेटेड, एक और तरह का आदमी होता है, जो कल्टीवेट करता है; जो एक-एक चीज को साध लेता है - बोलने को, उठने को, बैठने को, खाने को, कपड़े को - सब चीज को साध कर बैठ जाता है। उसको हम साधक कहते हैं! महावीर साधक नहीं हैं; महावीर सरल हैं। सरल साधक कैसे हो सकता है ? साधक का मतलब है फोर्ड, जिसने एक-एक चीज को नियंत्रण में लेकर खड़ा हुआ है - सांस रोक कर खड़ा हुआ है; आंख थाम कर खड़ा हुआ है; जिसने हर चीज को नियंत्रण में रखा हुआ है - कंट्रोल्ड | ऐसा आदमी झूठा आदमी होता है, अभिनेता होता है। महावीर तो अत्यंत सरल हैं। उनके जीवन में जो भी है, वह सीधा है और सरलता से निकल रहा है। लेकिन जब दूसरे लोग अनुकरण करने लगते हैं किसी सीधे और सरल आदमी का, तब मुश्किल शुरू होती है। 125
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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