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________________ तो न तो भोगी भीतर जा पाता, न त्यागी भीतर जा पाता। भोगी भी बाहर भटकता है, त्यागी भी बाहर भटकता है। भोगी सुख को खोजता है, त्यागी दुख को खोजता है। त्यागी कोशिश करता है कि जितना दुख... । भोगी एक तख्त खरीद लाता है। फिर कहता है, तख्त बहुत गड़बड़ है; गड़ता है, रात सोते नहीं बनता। अच्छी गद्दी खरीद लाता है। फिर एक और गद्दी, फिर एक और गद्दी– गद्दी पर गद्दी बढ़ाता जाता है। यह भोगी की दिशा है। त्यागी एक गद्दी कम कर देता है। सोचता है, एक गद्दी कम करने से मोक्ष मिलेगा! फिर दूसरी गद्दी कम कर देता है, फिर तीसरी गद्दी कम कर देता है। फिर सोचता है, तख्त अकेला ठीक है, इससे जरूर मोक्ष मिलेगा! फिर तख्त भी अलग कर देता है। फिर सोचता है, फर्श पर सो जाना सबसे ठीक है, इससे तो मोक्ष बिलकुल निश्चित है! दोनों पागल हैं। न तो गद्दी इकट्ठी करने से मोक्ष मिलता है, न गद्दी छोड़ने से मोक्ष मिलता है। गद्दी से मोक्ष का क्या संबंध? इररिलेवेंट है, कोई संबंध ही नहीं है। और अगर भगवान के पास पहुंचे और कहे, मैंने तीन गद्दियां छोड़ी, इसलिए मोक्ष का दरवाजा खोलिए, तो वह भी कहेगा कि तुम पागल हो गए हो! तीन गद्दियां छोड़ने से सिनेमा का दरवाजा भी नहीं खुलता है, मोक्ष का दरवाजा खुलवा लेना बहुत मुश्किल है। इतना आसान नहीं है, इतना सस्ता नहीं है कि आपने तीन गद्दियां छोड़ दीं, आपने घी लगाना रोटी पर छोड़ दिया, आप सिर घुटाने लगे, आप नंगे खड़े हो गए। आप जो भी कर रहे हैं, इस करने का सारा आब्जेक्ट बाहर है, सारी दृष्टि बाहर है। भीतर वह पहुंचता है, जो बाहर छोड़ने और पकड़ने दोनों से मुक्त हो जाता है। इसलिए महावीर को त्यागी मत कहें। महावीर रागी नहीं हैं, महावीर त्यागी नहीं हैं, महावीर वीतराग हैं। वीतराग का मतलब दोनों से भिन्न है-न त्याग, न राग। न राग, न विराग; न तो बाहर की पकड़, न छोड़ने का आग्रह। एक तीसरा कोण : वीतराग। न मैं बाहर पकड़ता हूं, न मैं बाहर छोड़ता हूं, क्योंकि मैं हूं भीतर। और जो भीतर है, मैं उसे जानने चलता हूं, बाहर की तरफ से आंख हटाता हूं। इसलिए महावीर हैं वीतराग। मत कहें विरागी, मत कहें त्यागी। वीतरागता में ज्ञान फलित होता है। भीतर जो जाता है, वह ज्ञान के दर्शन को उपलब्ध होता है। यह तो उनके अंतस-जीवन की कथा है। महावीर का असली जीवन, उनकी आत्मा के जीवन का पहला सूत्र कि महावीर ज्ञान के खोजी हैं, त्याग के नहीं। दूसरा सूत्र। हमें यही दिखाई पड़ता है, जैसा मैंने कहा, भोगी सुख खोजता है, त्यागी दुख खोजता है। और त्यागियों ने ऐसे-ऐसे दुख खोजे कि अगर हिसाब लगाएंगे आप, तो आप पाएंगे कि वे भोगियों से ज्यादा इन्वेंटिव, ज्यादा आविष्कारक हैं। भोगियों ने इतने आविष्कार नहीं किए। त्यागियों ने ऐसे-ऐसे आविष्कार किए हैं कि अगर उनकी सारी कथा बताई जाए तो प्राण रोमांचित हो जाएं कि यह क्या किया! आंखें फोड़ने वाले त्यागी हुए हैं, क्योंकि वे कहते हैं, आंखों से वासना का जन्म हो जाता है। पागल हो गए हैं, जैसे अंधे को वासना का जन्म न होता हो! आंख से क्या मतलब है? लेकिन वे कहते हैं, आंख से दिखाई पड़ते हैं रूप और चित्त 121
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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