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________________ दीर्घ तपस्वी! हे महापुरुष! तुम धन्य हो! तुमने कितना-कितना छोड़ा! और महावीर हंसते होंगे कि यह क्या पागलपन है, मैंने कुछ छोड़ा नहीं! और ढाई हजार साल से ये चिल्ला रहे हैं कि हे महान तपस्वी! हे त्यागी! हे महापुरुष! तुमने कितना छोड़ा। यह भोगियों की वृत्ति है, यह महावीर का जीवन नहीं। महावीर का अंतस-जीवन ज्ञान का है; लेकिन बाहर से जो जीवन हमें दिखाई पड़ता है, वह त्याग का दिखाई पड़ता है। और त्याग और ज्ञान में जमीन-आसमान का भेद है। और इसका परिणाम क्या होता है! इसका परिणाम केवल महावीर की जिंदगी गलत हम लिखते तो क्या हर्जा था, लिख लेते गलत। खतरा यह होता है कि गलत जिंदगी का अनुकरण करने वाले लोग पैदा हो जाते हैं। वे त्याग करना शुरू कर देते हैं और जिंदगी उनकी नष्ट हो जाती है। जिंदगी का आधार है ज्ञान; और ज्ञान से जो त्याग आ जाए, वह है सहज फल। लेकिन इस गलत कथा और जीवन के नाम पर पढ़ने वाले त्याग शुरू कर देते हैं! और त्याग से जो शुरू करता है, वह ज्ञान पर तो कभी पहुंचता नहीं, जीवन भर दुख में और पीड़ा में जीता है, क्योंकि सोने की ईंट छोड़ता है। सोच सकते हैं आप, सोने की ईंट! सम्हालना भी खतरा है, दुख है, पीड़ा है; और छोड़ना भी दुख और पीड़ा है, क्योंकि सोना दिखाई पड़ता रहता है। सोना छोड़ दिया मैंने-कहीं भूल तो नहीं हो गई, कहीं हैरानी तो नहीं हो गई। मुझे संन्यासी मिलते हैं। सबके सामने तो आत्मा-परमात्मा की बात करते हैं; और जब एकांत में मिलते हैं, तो कहते हैं, बड़ा भय मालूम होता है, बड़ी शंका मालूम होती है-कहीं हमने सब छोड़ कर गलती तो नहीं कर ली? हम बिलकुल अंधेरे में जा रहे हैं। पता नहीं, कहीं ऐसा न हो कि जो भोग रहे हैं, वे ही ठीक हैं। एकांत में उनके मन में यह संदेह, यह डाउट खड़ा रहता है हमेशा कि हम छोड़ आए हैं! सारा जगत भोग रहा है, हम छोड़ आए हैं। कहीं हमने भूल तो नहीं कर ली? हम तो बिलकुल अंधेरे रास्ते पर चल रहे हैं। हाथ की रोटी छोड़ रहे हैं, मोक्ष की रोटी का विचार कर रहे हैं! पता हो, न हो। लेकिन महावीर को ऐसी शंका नहीं है उनके प्राणों में। वे किसी रोटी के लिए नहीं छोड़ रहे हैं। वे किसी चीज को इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि कुछ मिल जाएगा। वे किसी चीज को इसलिए छोड़ रहे हैं कि कुछ मिल गया है। इस फर्क को ठीक से समझ लेना। एक आदमी छोड़ता है कोई चीज-अपने हाथ के पत्थर छोड़ देता है इस आशा में कि कल हीरे मिलेंगे तो हाथ भर लूंगा। इसकी पीड़ा आप नहीं समझ सकते। हीरे अभी मिले नहीं हैं और जो पास में था-रंगीन पत्थर सही, अभी हीरे मालूम होते थे; लेकिन लोग कहते थे रंगीन पत्थर हैं, शास्त्र कहते थे रंगीन पत्थर हैं, गुरु-संन्यासी समझाते थे कि रंगीन पत्थर हैं, छोड़ दो-समझ-बूझ कर, लोगों की बात सुन कर इसने छोड़ दिए रंगीन पत्थर, जो इसको हीरे मालूम होते थे, इस आशा में कि हीरे मिलेंगे। और अभी हीरे मिले नहीं, हाथ खाली हो गए हैं, प्राण छटपटा रहे हैं। खाली हाथ में प्राण बहुत छटपटाते हैं, पत्थर भी रखे रहें तो भी राहत मिलती है-कुछ तो है, पास कुछ तो है। 119
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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