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________________ इस सत्य का उदघाटन कि मेरी सत्ता असंग है, मेरी सत्ता नितांत भिन्न और पृथक है, जीवन में त्याग को फलित कर देती है। त्याग ज्ञान का फल है। कोई त्याग करके ज्ञान तक नहीं पहुंचता, ज्ञान के उत्पन्न होने से त्याग फलित होता है। सम्यक दर्शन प्राथमिक है, सम्यक आचरण उसका परिणाम है। आचरण नहीं पालना होता है, ज्ञान उपलब्ध करना होता है । जो आचरण से प्रारंभ करेंगे, उन्होंने गलत मार्ग से प्रारंभ किया। उन्होंने एक छोर से प्रारंभ किया। अज्ञान में आचरण आरोपित होगा, कल्टीवेटेड होगा । ज्ञान में आचरण सहज होता है। अज्ञान में क्रोध को दबा कर क्षमा करनी पड़ेगी, ज्ञान में क्रोध ही उत्पन्न नहीं होता है। जिन लोगों ने महावीर को कहा है कि बहुत क्षमावान थे, उन लोगों ने महावीर के प्रति बहुत असत्य कहा है। महावीर को क्षमावान कहने का अर्थ है कि महावीर में क्रोध उठता था । महावीर क्षमावान नहीं थे, असल में महावीर में क्रोध ही नहीं उठता। जिसमें क्रोध का अभाव है, उसमें क्षमा का, अक्षमा का प्रश्न नहीं उठता। क्षमावान क्रोधी हो सकते हैं, अक्रोधी के क्षमावान होने का प्रश्न नहीं उठता। चित्त में भीतर स्वयं के साक्षात से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह आश्चर्यजनक और स्वर्णिम प्रकाश से भर जाता है। जीवन में मुक्ति का मार्ग आचरण से नहीं, प्रज्ञा के जागरण से प्रारंभ होता है । यह प्रज्ञा-जागरण, यह स्व का साक्षात कैसे होगा? किस विधि से मैं अपने भीतर जा सकता हूं? किस विधि से मैं स्वयं के आमने-सामने आ सकता हूं? किस विधि से, जो सबको देख रहा है, उस सत्ता के साथ मेरा तादात्म्य हो सकता है ? अगर उस विधि को समझना है, तो समझना होगा, किस विधि से मैं अपने से बाहर हो गया हूं। किस विधि से मैं अपने से बाहर हो गया हूं? अगर मैं यह समझ लूं कि मैं किस विधि से अपने से बाहर गया, तो उसी पर पीछे वापस लौटने से मैं स्वयं में पहुंच जाऊंगा। जिस मार्ग से मैं बाहर आया हूं, वही मार्ग भीतर ले जाने का भी होगा - केवल विपरीत चलना पड़ेगा। जो मार्ग मुझे बंधन में लाया है, वही मार्ग मेरी मुक्ति का भी होगा - केवल विपरीत चलना पड़ेगा। जो मार्ग मुझे संसार से जोड़े हुए है, वही मार्ग मुझे परमात्मा से जोड़ेगा - केवल विपरीत चलना होगा । यह हमारा चित्त, यह हमारा मन, यह हमारा विचार हमें जगत से जोड़ता है। एक क्षण को कल्पना करें अभी कि चित्त में कोई विचार नहीं है, कोई तरंग नहीं है - चित्त निस्तरंग हो गया है, निर्विचार हो गया है— उस क्षण आप जगत से संबंधित होंगे क्या? उस क्षण क्या कोई भी संबंध शेष रह जाएगा? उस क्षण जो बाहर जीता है, उससे क्या कोई नाता, कोई संबंध शेष रह जाएगा, कोई भी धागे बंधे हुए रह जाएंगे ? कल्पना भी करेंगे तो दिख पड़ेगा - अगर चित्त बिलकुल निस्तरंग है और शून्य है, अगर चित्त में कोई भी क्रिया नहीं चल रही है, विचार की, वासना की, कल्पना की, स्मृति की कोई भी क्रिया नहीं है, सब शून्य है – उस शून्य में आप जगत से टूटे हुए होंगे, पृथक होंगे। चित्त विचार से भरा है, तो हम जगत से संयुक्त हैं, शरीर से संयुक्त हैं, अन्य से, पर से संयुक्त हैं । हमारा बंधन - अगर हम बहुत ठीक से समझें-संसार नहीं है, हमारा बंधन विचार है। 98
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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