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________________ ७६ महावीर : परिचय और वाणी प्रतिकमण का अर्थ होता है-सभी हमलो को लोटा लेना । हमारी चेतना साधारणत. आक्रामक है । प्रतिक्रमण आक्रमण का उल्टा है। इसका अर्थ है-सारी चेतना को समेट लेना । जिस प्रकार शाम को सूर्य अपनी किरणो के जाल को समेट लेता है, उसी प्रकार अपनी फैली हुई चेतना को मित्र, गन, पत्नी. वेटे, मकान धन आदि ने वापस बुलालेना। जहाँ-जहां हमारी चेतना ने खूटियां गाड दी है और वह फैल गई है, वहाँ-वहाँ से उसे वापस बुला लेना है। प्रतिक्रमण ध्यान का पहला चरण है, सामायिक इसका दूसरा चरण । सामायिक ध्यान से भी अद्भुत शव्द है । 'ध्यान' शब्द किसी-न-किसी रूप मे पर-केन्द्रित है- इसमे किसी पर या कहीं व्यान के होने का भाव छिपा है । यह कहने पर कि 'ध्यान में जाओ', यह जिज्ञासा होती है कि पूर्छ-किस के ध्यान मे जाऊँ ? किस पर ध्यान करु, कहाँ ध्यान लगाऊँ ? समय का मतलब होता है आत्मा और नामायिक का मतलब होता है आत्मा में होना । प्रतिक्रमण है पहला हिस्सा (दूसरे से लौट आओ), सामायिक है दूसरा भाग (अपने मे हो जामो) । जबतक दूसरे से नही लौटोगे तब तक अपने मे होओगे कैसे ? इसलिए पहली सीढी प्रतिक्रमण की है और दूसरी सीढी नामायिक की। लेकिन वह जो बकवास प्रतिक्रमण के नाम से चलता है, वह प्रतिक्रमण नहीं है। महावीर ने ध्यान शब्द का प्रयोग नहीं किया है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ध्यान शब्द ही दूसरे का इशारा करता है। लोग पूछते हैं हम ध्यान प्रकार का है। भावप्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्य प्रतित्रामण नहीं। द्रव्य प्रतिक्रमण वह है, जो दिखावे के लिए दिया जाता है। दोप का प्रतिनमण करने के बाद भी फिर से उस दोष को वारवार सेवन करना, यह व्यप्रतिक्रमण है। इससे आत्मशुद्धि के बदले ढिलाई द्वारा और भी दोषो की पुष्टि होती है। इस पर कुम्हार के बर्तनो को कंकर द्वारा बार-बार फोड़कर बार-बार माफी मांगनेवाले एक क्षुल्लक-साधु का दृष्टांत प्रसिद्ध है।' (उपरिवत्) पं० धीरजलाल शाह 'शतावधानी' के शब्दो में 'अज्ञान, मोह, अथवा प्रमादवश अपने मूल-स्वभाव से दूर गए किसी जीव का अपने मूल-स्वभाव की ओर पुनः लौटने की प्रवृत्ति प्रतित्रमण कहलाती है।' इस सदर्भ मे निम्नलिखित गाथा भी स्मरणीय स्वस्थानाद् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशं गतः । नत्रैव कमणं भूय., प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ अर्थात्-यदि (आत्मा प्रमादवश अपने स्थान से परस्थान में गई हो तो वहाँ से उसे वापस लौटाना ही प्रतिक्रमण कहाता है । दे० श्रीपंचप्रतिक्रमणसून (जैन-साहित्य-विकासमण्डल, १९५५), पृ०१६६ ।, १. सामाइय समाय की क्रिया। जिसमें सम अर्थात राग-द्वेष रहित स्थिति का आय अर्थात् लाभ हो, उसको समाय कहते है ।' (उपरिवत्, पृ० ३५)
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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