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________________ चतुर्थ अध्याय सामायिक, प्रतिक्रमण और चारित्र सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुहपडिफूला, अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा णातिवाएज्ज क्चण । --आचाराग १ २ ३ महावीर ने मूक जगत के साथ तो सम्बय स्थापित किया ही था उहान देव तामा तक भी अपनी बात पहुँचाई थी। मगर देव जसी पिसी हस्ती यी स्वीकृति हम बहुत याटिन मालूम पड़ती है। जो हमे तिपाई पड़ता है, वही हमारे लिए सत्य प्रतीत होता है। देव उस अस्तित्व का नाम है जो हमे साधारणत दिखाई नहा पडता रैकिन यदि योटा सा भी थम किया जाय तो उस लोक के अस्तित्व को भी देपा जा सकता है। उससे सम्बद्ध भी हुआ ा सकता है। जहाँ हम रह रहे हैं ठीप वहीं देय भी हैं और प्रेत भी। प्रेतात्माएं इतनी ष्टि हैं कि उहाँने मनुष्य होने की सामय्य खो दी है। देवात्माएं मनुप्य से ऊपर उठी आत्माएँ हैं जिनम मोक्ष को उपलब्य परन की सामथ्य ही है। ये सारी मात्माएं ठीर हमारे साथ हैं, किसी धांद पर नहा । इसलिए पभी कमी व हमारा स्परा भी करती हैं और विन्ही डाहा म दिखाइ भी पडती हैं। परन्तु साधारणत ऐसा नहीं होता क्योकि हमारा और उनका अलग-अरग अस्तित्व है। एक ही कमरे में प्रकार भी हो सकता है और मुगध भी। उसम वीणा की ध्वीि भी गंज सरती है। जिन प्रकार य एक-दूसरे को नही वाटत, उसी प्रकार देवता, प्रेत और मनुष्य एक ही जगत मे रहवर भी एक दूसरे की जगह घेरने का काम नहीं परत । उनका अस्तित्व हमारे अस्तित्व ठीक समानातर है और वे हमारे साय जात हैं। महावीर या उनके जसे "यक्तिया ये जीवन 4 साय उापा निरतर सभ्य घ और सम्पर रहा है जिसे परम्पराएं समलो मे एकदम असमय हैं । उनी बातचीत से ही होता है जस दा ध्यसिया ये वीच होती है। महावीर इद्र या और देवता रिसी पल्पनालोर म यातें नही परते । वे विरपुर मामन-सामो मिलते और बातें मरते हैं। १ सभी प्राणियों को अपना अपना जीवन प्रिय है, सब सुन रे अमितापी है, दुख सय प्रतिरल है, यप सबसे अप्रिय है, जीवन प्रिय है सम जीने की रामना परते है। इसलिए किसी को मारना या षष्ट देना नहीं चाहिए।
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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