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________________ ३५ महावीर परिचय और वाणी के विपरीत कोई अहिंसा नहीं है। हिंमा के विपरीत जो अहिमा है, वह आज नहीं तो क्ल हिंसक हो ही जायगी। जहा न हिंसा रह गई और न अहिंसा, वही महावीर की अहिंसा है। __ वीतरागता सारे मुत्र के लिए इसके पराडो लोगा के लिए दिन तो है पर असम्भव नहा । इसने कठिन होने का सबस वहा कारण यह है कि यह याठिन मान री गई है । हमारी धारणा ही चीजा को कठिन या सरल बनाती है। एक एक आदमी ने जिस जिम तरह के माामिक बोझ को पक्ड रखा है उसकी वाह से वीतरागता कठिन हो गई है। जो स्वमाव है यह अतत बठिन नहीं हो सकता--विभाव हो कठिन हो सकता है। वह आन-पूण है और उसकी एक झलक पात ही हम पितने ही पहाड सपने को तयार हो सपत है । यरक जब तक नहीं मिलतो तब तक कटिनाई है । और झलक राग और विराग मिलने नहीं देती। राग और विराग के द्वद्व की खिडकी परा सी टूट जाय ता वीतरागता या आन द बहने लगता है। स्मरण रह कि राग विराग म डोलता हुआ आदमी बहुत सतरनाक होता है । इसलिए नियम बनान पडत हैं। परतु नियम बनानेवाले भी राग विराग म डालत हुए आदमी होते है। वे उन लोगा से भी अधिा सतरनाक हैं जा क्वल राग विराग म डोलत होत है। वीतरागता थाही भी उपर पहुई कि नियम अनावश्यव हो जात ह । चित्त जितना वीतराग होगा विवेक उतना ही पूर्ण होगा। वीतरागता पूर्ण हुई तो विवर ही पूण हुआ। वीतरागता के रिए विसी सयम की जररत नही, क्याकि विवा स्वय हो सयम है। अविवेक के लिए सयम की जरूरत होता है। इसलिए सब सयमी अविवको हात हैं । जितनी बुद्धिहीनता होती है उतना ही सयम बाधना पड़ता है । अब तब हमारा समाज बुद्धि की कमी को सयम स पूरा करन की मालिश करता रहा है इसलिए हजारो सार हो गए काई पर नहीं पड़ा। अगर लोग विवेकपूर्ण हो जाय तो समाज वसा नही होगा जैसा हम इस समझते रहे है। पहली दफा ठाय अयो म समाज होगा। अभी क्या है? समाज है, पक्नि नहीं। व्यवस्था छाती पर बठी है और यवित नीचे दवा है । वीतराग चित्त से भरे हुए विवरण लागा के समाज में व्यक्ति बद्र होगा, समाज गौण होगा और उससे देव" हमारे अतथ्यवहार की “यवस्था होगी। विवक्शील यक्ति का अन्त पहार क्सिो याहरी सयम और नियम में नहीं चलगा एक आतरिक अनुशासन से चलेगा। इमलिए मेरा कहना है कि रामा की व्यवस्था म व्यक्ति पर सयम थोपने यो चप्टा यम होना चाहिए, विवक देश को व्यवस्था ज्यादा होनी चाहिए । विवेर स सयम आता है, कि तु सयम स विवेक नहा आना । मयम और नियम का यवम्या को सिफ आवश्यक बुराइ समपना होगा। लाग प्रान परत हैं कि यदि तीयकर पहले जम म ही नपत्य हो परे हाा है
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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