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________________ ३२८ महावीर : परिचय और वाणी होता । चाहे आप कुछ भी करते रहें-दुकान मे हो, बाजार मे काम कर रहे हों, कही भी हो -- चेतना की स्पष्ट प्रतीति बनी रहती है । तब शरीर को कोई दुख नही होता, क्योकि आप शरीर नही रहे । जब महावीर के कान मे कोले ठोकी जा रही थी तब वे शरीर को नहीं देख रहे थे, वे अपनी चेतना को देख रहे थे । जव ध्यान चेतना पर होता है तब कीले ठोकी भी जाती है तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे किसी और ही शरीर मे ठोकी जा रही है। महावीर ने पृथकत्व या साक्षी भाव का प्रयोग किया है। इसके लिए उनका शब्द है 'भेद विज्ञान' अर्थात् चीजो को अपने-अपने हिस्सो मे तोडकर देखने का विज्ञान । भोजन वहाँ है, शरीर यहाँ है, मैं दोनो के पार हूँ - इतना भेद स्पष्ट हो जाए तो साक्षी भाव हो जाता है । तो तीन वा स्मरण रखे रात नीद के समय - स्मरण, प्रतिक्रमण और पुनजीवन, सुवह पहले विचार की प्रतीक्षा, ताकि अन्तराल दिखाई पडे और अन्तराल मे सारा गेस्टाल्ट बदल जाए ( धूलकण नही दिखाई पडें, प्रकाश की धारा स्मरण मे आ जाए), ओर पूरे समय चौवीसो घंटे, चेतना पर ध्यान, यह होग कि न तो मैं भोजन हूँ और न भोजन करनेवाला हूँ। मैं दोनो से अलग हूँ, मैं त्रिभुज के तीसरे कोण पर हूँ । इस तीसरे कोण पर चोवीसो घंटे रहने की कोशिश साक्षी भाव है | ( ६ ) महावीर के माधना-मूत्र मे बारहवां और अन्तिम तप है कायोत्सर्ग । कायोत्सर्ग का मतलब काया को सताना नही है । हाथ-पांव काट-काटकर चढाते जाना कायोत्सर्ग नही है । कायोत्सर्ग तब होता है जब ध्यान परिपूर्ण शिखर पर पहुँच जाता है और गेस्टाल्ट बदल जाता है, काया का उत्सर्ग हो जाता है। उसका कही कोई पता नही रह जाता। निर्वाण या मोक्ष क्या है ? ससार का खो जाना है । ठीक इसी तरह आत्मानुभव काया का खो जाना है । आप कहेंगे, महावीर तो चालीस वर्ष जिए; ध्यान के अनुभव के बाद भी उनकी काया सुरक्षित थी। असल में वह आपको दिखाई पडती है, लेकिन महावीर के लिए अब कोई काया न थी, कोई शरीर न था। उनका कायोत्सर्ग हो गया था, यद्यपि यह घटना हमे दिखाई नही पडती । परम्परा कायोत्सर्ग का कुछ और ही अर्थ करती रही है। उसके अनुसार कायोत्सर्ग का अर्थ है—काया पर आने वाले दुखो को सहज भाव से सहना । कायोत्सर्ग का यह असली अर्थ नही है । परम्परा जिसे कायोत्सर्ग कहती है वह तो वाह्य तप है । कायोत्सर्ग का अर्थ है काया को चढा देने की तैयारी, काया को छोड देने या उससे दूर हो जाने की तैयारी, यह जान लेने की तैयारी कि मैं काया से भिन्न हूँ, ऐसा हो जाने की तैयारी कि काया मरती भी हो तो मैं देखता रहूँगा । जहाँ हम खडे है, वहाँ मालूम पडता है कि शरीर मेरा है और मैं शरीर हूँ । हमे कभी कोई एहसास नही होता कि शरीर से अलग भी हमारा कोई होना होता है। इसलिए जब शरीर पर कष्ट आते
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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