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________________ महावीर परिचय और वाणी १९१ ही है, हम भी उसका गुलाम बनना पडता है। मालिक जपने गुलाम का गुलाम होता है । पति अपनी पत्नी का कितना भी मारिय बनता हो वह अपनी पत्नी वा गुलाम भी होता है । सम्राट जहा अपने साम्राज्य वा मालिक होता है, वहां वह भय का गुलाम भी होता है क्यादि जिन्हें हम परतत्र करते हैं वे हमारे प्रति विद्राह और बगावत शुरू करते हैं, वे भी हम परतत्र करना चाहते हैं । मालिक और गुलाम में इतना ही फर्क होता है कि एक वो गुलामी दृश्य होती है और दूसरे का बतस्य । हम जिसे गुलाम बनाते है वह हम भी गुलाम बना लेता है । बडे गुलाम वे है जिन्हें दूसरा के सम्राट होने का भ्रम पैदा होता है । और बड़े गरीन वे हैं जो बाहर की सम्पत्ति से भीतर की गरीबी मिटाना चाहते हैं । इसा तरह बड़े परनन वे ही हैं जो दूसरा वा परत करके स्वयं स्वतंत्र होने के सवाल में मटक्त हैं । कोई भी आदमी विमी को परतत्र करके स्वतंत्र नहीं हो सकता । जेल्पान व बाहर सडा सतरी भी उतना ही बंद है जितना जेल्मान मे वद वदी । एव दीवाल के भीतर बँधा है, दूसरा दीवार के बाहर न दावाल के भीतरवाला भाग सकता है, न दीवार में बाहरवाला । मजे की बात तो यह है कि दीवाल ये मोतरवाला भागने का उपाय भी करता है बाहरवाल भागने का उपाय भी नही करता । वह इस सयालम होता है यह स्वतन है । जिदगी के अनूठे रहस्या रि म एक रहस्य यह भी है कि हम जिसे बांधते हैं उससे हो हम बँध जाना पडता है । 1 परिग्रह की पहली कोशिश यह होती है कि मुझे यह सयाल भूल जाय वि में अपना माल नहीं है ।तना ही पता चलता है कि में अपना मालिक नही हूँ उतना ही मैं चाहर की मालियन को फैलता चला जाता हू । में भीतर माथि क्या नहीं है ? जा भीतर है उस में जानना ही नहा, इसलिए उनका मानि होना म है। वादात इस बात से शुरू होती है कि में जितना है उतना ही पर्याप्त हूँ । कोई कमी रहा है जिसे मुझे पूरी करनी पडे बाई मा नहीं है जिस वजह से में साली हूँ। वह एक मोजरी आप्नता है । गव है इसलिए कोई भी नहीं है । रिन सम्राट के पास कुछ भी नहीं है । हम गव भीतर खि है । मखिता यो हम पर से मानव ष्ण करत है । घन गा ढेर लगा दी है, फिर या रहती है। मेरी दमि अमीरी काएर हो पटती है । इसलिए में सन बमोरी में काम रहता हूँ । पर जो भी रिता है उस या भरने के लिए परिग्रह है। यदि हम बाहर पो पोपोट तिमि आयी अगर बाहर को पीजा मे हान स तर मीरा मिटीनामेवा मिटेगी? मेदिमीमा बुनियादी मूत्र से परा होता है। यह खाता है और पद भीतर यो खाता या दो जायेगी
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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