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________________ १६२ महावीर : परिचय और वाणी है, मुझे झील पसन्द हो और मै झील की वात करूँ और आप को पहाड पसन्द हो और आप पहाड़ की बात करे । हो सकता है कि मुझे दिन पसन्द हो और मैं सूरज की बात करूँ और आपको रात पसन्द हो और आप चांद की बात करे । दर्शन मे श्रीनगर एक था, वहाँ रात और दिन जुडे थे, पहाड और झील जुड़े थे, वहाँ सब इकट्ठा था । लेकिन जब हम बात करने गए तो हमने चुनाव किया, एक दृष्टि अपनायी । जैसे ही कोई बात बोली जायगी वैसे ही वह दृष्टि बन जायगी । दृष्टियो को दर्शन समझने की भूल होती रही है । इसलिए जैनो की एक दृष्टि है, दर्शन नही; हिन्दुओं की एक दृष्टि है, दर्शन नही । अगर हम दर्शन की बात करे तो हिन्दू, मुसलमान, जैन —– सब खो जायँगे । महावीर का जो अनुभव है वह तो समग्र है, लेकिन अभिव्यक्ति समग्र नही हो सकती । समग्र अकथ है, वर्णनातीत है । छोटे-से, सरल अनुभव भी समग्ररूपेण प्रकट नही हो सकते, फिर परमात्मा का अनुभव तो बहुत बडी बात है ! आपने फूल को देखा । वह बहुत सुन्दर है । आपने उसकी अनुभूति का वर्णन करना चाहा । जब आपने उसके सौन्दर्य का वर्णन किया तो आपको लगा कि बात कुछ अधूरी रह गई। जो आपको अनुभव हुआ जीवन्त, जो आपका सम्पर्क हुआ फूल से, जो सौन्दर्य आप पर प्रकट हुआ, जो सुगन्ध आई और हवाओ ने फूल का जो नृत्य देखा——वह सब आपके लिए अकथ है और आप महसूस करते है कि आपकी अभिव्यक्ति कभी पूर्ण नही हो सकती । जब कोई असाधारण अनुभव को कहने जाता है व उसकी अभिव्यक्ति मे इतनी कमी पड जाती है कि उसका हिसाब लगाना कठिन है । दुनिया मे जितने सम्प्रदाय है वे सब कही हुई बातो पर निर्भर है --जानी हुई बातो पर नही । जानी हुई बातो पर कभी सम्प्रदाय निर्मित हो जायँ, यह असम्भव है । एक वार अपने शिष्यो की राय से फरीद कबीर के आश्रम मे रुके । कवीर के गिप्य भी चाहते थे कि दोनो ज्ञानियो मे बातचीत हो और वे उसका आनन्द ले । फरीद उस आश्रम मे दो दिन रुके । दोनो पास-पास बैठे लेकिन कोई बातचीत नही हुई । दोनो गले- गले मिले, हँसे और फिर फरीद की विदाई भी हो गई । कवीर के शिप्यो ने फरीद के जाते ही पूछा 'यह क्या ! दो दिन कैसे चुप रहे 1 एक ज्ञानी और दूसरा अज्ञानी आप ?' कबीर ने कहा 'दो अज्ञानी वोल सकते है, भी बोल सकते हैं, परन्तु दो ज्ञानियो के वोलने का उपाय क्या हे ? जो बोलता है वह नाहक अज्ञानी वन जाता है। उसे लगता है कि जो जाना गया है वह अपार है और वोला हुआ वहुत छोटा है। तो जो बोलता है वह नासमझ होता है ।' जहाँ ज्ञान है वहाँ भेद नही और जहाँ शब्द है वही भेद है । इसलिए महावीर ने जो जाना है वह तो समग्र है लेकिन उन्होने जो कहा है वह समग्र नही । वह
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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