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________________ १५० महावीर : परिचय और वाणी वन पाए और जो मित्र बने वे शत्रु सिद्ध हुए । मजे की वात तो यह है कि अनेकान्त को भी महावीर के अनुयायियो ने 'अनेकान्तवाद' बना दिया है। 'अनेकान्त' का मतलब है 'वाद' का विरोध और वाद का मतलब ही होता है दावा । यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि महावीर शायद हजार-दो हजार वर्प वाद पुन प्रभावी हो सके। जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ रही है, 'वादी' चित्त नष्ट होता जा रहा है। जितनी बुद्धिमत्ता वढ रही है आदमी उतना ही निप्पक्ष होता चला जा रहा है । आज नहीं तो कल, सम्प्रदाय और वाद जाएँगे ही। महावीर जिसे सन्यासी कहते है वह एक ऐसा अवादी व्यक्ति है जो असुरक्षा मे ___जोता है, जो अगृही है। लेकिन आज का सन्यासी महावीर के सन्यासी का उलटा आदमी है । वह आज के गृहस्थो से ज्यादा सुरक्षित है। गृहस्थ के ऊपर हजारो चिन्ताएँ और झझटे है, सन्यासी मस्त है । उसे न कोई दिक्कत है और न कोई कठिनाई । खाने-पीने का प्रबन्ध है, मन्दिर है, आश्रम है । सन्यासी इस समय सबसे ज्यादा सुरक्षित है जव कि सन्यासी का मतलव वह व्यक्ति है जिसने सुरक्षा का मोह छोड़ दिया और जो असुरक्षा में ही जीने लगा। सन्यासी वह है जो कल की बात नही करता, भविष्य का विचार नहीं करता, योजना नही वनाता, बस प्रति-पल, क्षण-क्षण जिए चला जाता है। मौत आए तो वह राजी है, जीवन हो तो राजी है ! ऐसी ही चित्त-दशा का नाम सन्यास है और ऐसा ही व्यक्ति अगृही है। सुरक्षा ही गृह है और ___ असुरक्षा अगृह । सुरक्षा मे जीनेवाला व्यक्ति गृहस्थ है और सुरक्षा मे न जीनेवाला अथवा असुरक्षा की स्वीकृति मे जीनेवाला व्यक्ति सन्यासी है, अगृही है। इस सम्बन्ध मे लोग पूछते है कि महावीर ने सन्यासियो से यह क्यो कहा कि तुम गृहस्थो को विनय मत देना, उनको तुम नमस्कार मत करना ? महावीर के पीछे आनेवाले साधुओ ने महावीर के इस कथन का दूसरा ही मतलब निकाला है। उन्होने इसे 'अहकार की प्रतिष्ठा' बना ली है-यानी वे सम्मानित है, पूज्य हे. दसरे उनकी पूजा करें। लेकिन महावीर ने यह कही नही कहा कि साधु गृहस्थ से पूजा ले, सन्यासी गृहस्थ से विनय मांगे। उन्होने केवल इतना ही ___ कहा कि गृहस्थ को अगृही विनय न दे। गृहस्थ का मतलब ही वह आदमी है जो अज्ञान से घिरा है। उसके अज्ञान की तृप्ति को जगह-जगह से गिराना जरूरी है। उसके अज्ञान को बढाना अनुचित है। अहकार न बढ जाय गृही का, इसलिए महावीर कहते हैं कि सावु उसे विनय न दे। लेकिन महावीर को पता न था कि उनका साधु ही इस कथन को अपने अहकार के पोपण के लिए प्रमाण वना लेगा और इस अहकार मे जीने लगेगा कि उसे पूजा मिलनी चाहिए ।
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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