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________________ महावीर को समझने के लिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहूंगा कि हमारी कोई मांग न हा, सौदा करने की हममे काई भावना न हो । न हम जनुकरण करें जार न अनुयायी बनें। वेवल सहानुभूतिपण दृष्टि से देखें वि नम क्या घटा-पहचाने कि क्या घटा, सोजे की क्या घटा । इसलिए जन महावीर यो समय नही पात । बौद्ध बुद्ध को नहीं समयत । इनमा प्रेम बशत नहा हाता। प्रत्यय ज्याति के आसपास अनुयायिया का जा समूह इक्टठा जाता है वह ज्याति का युयाने म सह्यागी होता है उस प्राद्दीप्त रखने म नही। महावीर का जन हो से क्या सम्बध ? कुछ भी नही। महावीर को इमघा पता भी न होगा कि मैं जैन हूँ। प्राटस्ट का पता ही न हागा दि मैं इसाइ हूँ। इसलिए मैं कहता हूँ कि किसी को समयना हो ता उसके पास खाली मन जाना और याद रखा कि जा जैन नहीं है, बौद्ध नहीं है हिदू या मुसलमान नहीं है, वह पूर्वाग्रहा स मुक्त रह्न के कारण सहानुभूति से देख सकता है। उसका दृष्टि प्रेमपूण हो सकती है । और बड़े मजे की बात है कि हम जाम से ही जन हो जाते हैं, जम से ही बौद्ध हो जाते हैं। मतलब यह है कि जम से ही हमार धार्मिक होने की सम्भावना समाप्त हा जाती है। अगर कभी भी मनुष्य का धामिक बनाना हो तो जम से घम का सम्बघ विलकुल ही तोड देना जरूरी है। जम स काई भामिक क्स हो सकता है ? जम से ही जिसने परड लिया धम को वह उस समयगा क्या? समयन का मौका रहा रहा ? अब तो उस आग्रह उमकी पूर्व पारणाएँ निर्मित हो गई। वह महावीर को समझ ही नहीं सकता क्योनि महावीर नो समयने के पहले उसन उहें तीथकर बना लिया, परम गुर मपय लिया, सवज्ञ मान लिया परमात्मा कह दिया । परमात्मा को पूजा जा सकता है समझा नहीं जा सकता। समझने के लिए ता अत्य त सरल दृष्टि चाहिए अत्य त पक्षपात रहित दृष्टि । मैं वह सपता हूँ कि मैंन महावीर को ममया है क्याकि मेरा वाई पक्षपात नहा, कोई आग्रह नही । हो सकता है कि जो मरी ममझ हो वह शास्त्रा म त मिरे । मिलेगी भी नहीं क्याविनास्त्र उन्हान रिखे है जो बधे हैं अनुयायी हैं जना है। शास्त्र उहाने लिखे हैं जिनके लिए महावीर तीथकर हैं सवन हैं और जिहाने महावीर का समझन के पहले कुछ मान लिया है। समय कभी भी गास्त्र से मेर नहीं साती । समय और गास्त्र म युनियानी विराध रहा है। शास्त्रा व रचयिता नासमय, पक्षपातपण आग्रही होत है जा कुछ मिद्ध परन का आतुर हैं। उनम समपो की उतनी उत्सुक्ता नहीं होती जितनी बुद्ध सिद्ध करने पी । शास्त्राय बुद्धि इसलिए अवनानिष हो जाती है कि यह कुछ मिद्ध परना चाहती है जा है उसे जानना नहा चाहता। नास्त्रीय बुद्धि या यादमी परम्परा स बँधा हाता है सम्प्रदाय से बंधा होता है और यह सोचकर नि सत्य पता ही वसा है भयभीत होता है। ता मेरी बात न मारम मितने तला पर मेर नी पायगा। सभी मेला ___ जाय तो यही आश्चय की बात हागी। मेट न गाता ही अधिर स्वाभाविर हागा।
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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