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________________ ११४ महावीर : परिचय और वाणी दुखी हो । भागता वह है जो डरता हो, भयभीय हो, जिसे शक हो कि मैं जीत न सकूँगा। महावीर उस घर से निकलते है जिसमे आग लगी है। जब घर में आग लगती है और उसमे रहनेवाले लोग उसे छोडकर बाहर निकल आते है तव उनका पलायन पलायन नही कहलाता, विवेक की सज्ञा पाता है। जिस घर में आग लगी हो उसमे रहना ही अपनी विवेकहीनता का परिचय देना है। हम बीमार आदमी को कमी यह नही कहते कि तुम पलायनवादी हो, वीमारी से भाग रहे हो, डाक्टरो के यहाँ जाते हो। एक अँधेरे मे पडा व्यक्ति जब सूरज की ओर जाता है तब हम यह नही कहते कि तुम पलायनवादी हो, सूरज की ओर भागते हो। वस्तुत हम वहाँ __ खडे है जहाँ जिन्दगी है ही नही। दूसरो को पलायनवादी कहकर हम यही सिद्ध करना चाहते है कि हम जहाँ खडे है, वहाँ से हटने की हमे जरूरत नही । हम वहादुर लोग है महावीर और बुद्ध की तरह भगोडे नही। परन्तु स्मरण रहे कि जिन लोगो ने महावीर को 'महावीर' नाम दिया था, उनकी दृष्टि मे महावीर पलायनवादी न थे। - इसका कारण शायद यह था कि हम अपनी कमजोरी की वजह से जहाँ से हट नही सकते, वहाँ से महावीर अपने अदम्य पीरुप की वजह से हट गए थे। वह उस व्यक्ति के समान है जिसे हीरो की खदान दिखाई पड गई है और वह उसी की ओर भाग रहा है। ऐसे व्यक्ति का भागना पलायन नही है । ऐसा भागना उस व्यक्ति के भागने-जैसा नही है जिसके पीछे वन्दूक लगी हो। लेकिन यह भी सत्य है कि सौ सन्यासियो मे निन्यानवे सन्यासी पलायनवादी ही होते है। उन निन्यानवे सन्यासियो । के कारण सौवे सन्यासी को ठीक-ठीक समझना मुश्किल हो जाता है महावीर ने न तो नियन्ता को स्वीकार किया है, न समर्पण को, न गुरु को __ और न शास्त्र को। क्या यह महावीर का घोर अहकार नही था ? क्या वे अहवादी नही थे? __ ऐसे प्रश्न स्वाभाविक है । जो नियन्ता, गुरु, शास्त्र, परम्परा आदि के प्रति झुकता है, वह साधारणत हमे विनीत और निरहकार प्रतीत होता है। इस सदर्भ मे मेरी पहली बात यह है कि परमात्मा के प्रति झुकनेवाला भी अहकारी हो सकता है और यह अहकार की चरम घोषणा हो सकती है कि मैं परमात्मा से एक हो गया हूँ। 'अह ब्रह्मास्मि' की घोषणा अहकार की चरम घोषणा है। दूसरी बात यह है कि समर्पण मे अहकार सदा मौजूद रहता है, समर्पण करनेवाला मौजूद है। समर्पण __का कृत्य ही अहकार का कृत्य है । जब कोई कहता है कि मैंने परमात्मा के प्रति स्वय को समर्पित कर दिया है तब हमे लगता है कि परमात्मा ऊपर है और समर्पण करनेवाला व्यक्ति नीचे। यह हमारी भूल है। समर्पण करनेवाला व्यक्ति कभी नीचा
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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