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________________ 4.5. - गाड़ी की धुरी • उत्तराध्ययन सूत्र में इस उपमा का प्रयोग दो जगह किया गया है। गाड़ी की गति के लिए उसकी धुरी मुख्य उपकरण है। इसके टूट जाने पर गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती। जो गाड़ीवान समतल राजमार्ग को जानता हुआ भी उसे छोड़कर विषम मार्ग पर चलता है उसे गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करना पड़ता है। इसी प्रकार धर्म को छोड़कर अधर्म को स्वीकार करने वाले अज्ञानी पुरुष को मृत्यु के आने पर शोक करना पड़ता है। दूसरे, जिस प्रकार गाड़ी की धुरी को भार वहन की दृष्टि से चुपड़ा जाता है अन्य किसी कारण से नहीं। उसी प्रकार ब्रह्मचारी को गुण भार को वहन करने की दृष्टि से आहार करना चाहिए। रसलोलुपता आदि अन्य दृष्टियों से नहीं।' 100 4.6. जुआरी उत्तराध्ययन सूत्र में दुराचारी को जुआरी से उपमित करते हुए कहा गया है कि जो जुआरी प्रथम ही दांव में अपनी सारी सम्पत्ति हार जाता है उसके लिए शोक करने के अतिरिक्त कुछ नहीं बचता। उसी प्रकार दुराचरण करने वाला अज्ञानी पुरुष परलोक के भय से शोक करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकता। 101 4.7. शिशुनाग - शिशुनाग अलस या केंचुए को कहते हैं। यह मिट्टी खाता है। उसका शरीर गीला होता है। यह निरंतर मिट्टी के ढेरों में ही घूमता रहता है इसलिए इसके शरीर पर मिट्टी चिपक जाती है। सूर्य की संतप्त किरणों से गीलापन सूख जाता है, तब वह गर्म मिट्टी से झुलस कर मर जाता है। इस प्रकार दोनों तरफ से ग्रहीत मिट्टी उसके विनाश का कारण बनती है। उत्तराध्ययन सूत्र में कामी पुरुष को शिशुनाग की उपमा देते हुए कहा गया है कि आसक्ति से ग्रस्त व्यक्ति भीतर के अशुद्ध भावों से तथा बाहर की असत् प्रवृत्ति से दोनों ओर से कर्म का बंधन करता है। भोग के संबंध में उसकी आस्था भी असत् हो जाती है तथा आचरण भी असत् हो जाता है। इससे वह दोनों ओर से कर्म संचय करता है। वह इस लोक में भी जानलेवा रोग आदि कष्टों से ग्रस्त होता है और मृत्यु के बाद भी दुर्गति में जाता है।' 102 4.8. 103 मक्खी - उत्तराध्ययन व भगवती आराधना में भोगों की आसक्ति में फंसे व्यक्ति को श्लेष्म में फंसी मक्खी की उपाधि दी गई है। जिस प्रकार श्लेष्म में आसक्त होकर मक्खी उसमें प्रवेश करती है और उसी में फंस जाती है। उसी प्रकार, जो व्यक्ति आत्मा को दूषित करने वाले आसक्ति जनक भोग में फंस जाता है वह उससे निकलने में असमर्थ होता है। 4.9. दुस्तर समुद्र - उत्तराध्ययन सूत्र में काम - भोगजन्य आसक्ति को दुस्तर समुद्र के समान कहा गया है। जिस प्रकार अथाह समुद्र में सामान्य व्यक्ति डूब जाता है पर उसका पार नहीं पा सकता लेकिन पुरुषार्थी वणिक् बड़े-बड़े समुद्र को पार कर लेते हैं। उसी प्रकार काम भ अधीर पुरुषों द्वारा सूत्यज नहीं है। सुव्रती ही उन्हें छोड़ सकता है। 4.10. राक्षसी राक्षसी एक प्रकार की व्यंतर देवी होती है। वह पहले प्रलोभन देकर व्यक्ति 104 64
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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