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________________ इनके माध्यम से गूढ तत्त्वों को सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता है। जैन आगमों में ब्रह्मचर्य का महत्त्व समझाने के लिए अनेक प्रकार की उपमाओं का प्रयोग अनेक स्थानों (जैसे दसवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग आदि ग्रथों में) पर हुआ है। उनमें प्रश्नव्याकरण सूत्र में एक ही स्थान पर (2/4/1) सैंतीस उपमाओं के साथ ब्रह्मचर्य की व्याख्या की है। उपमाएं केवल समझने की सरलता के लिए शाब्दिक प्रयोग ही नहीं हैं इनमें गहरा अर्थ भी भरा होता है। वह गहरा अर्थ उपमेय की विराटता के साथ उसकी गुणवत्ता को प्रकाशित करता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य को दिए गए उपमानों से ब्रह्मचर्य की महत्ता इस प्रकार ज्ञात होती है - ब्रह्मचर्य की सैंतीस उपमाएं 1. यह व्रत कमलों से सुशोभित सरोवर और तालाब के पाल के समान है अर्थात् धर्म की रक्षा करने वाला है। 2. किसी महाशकट के पहियों के आरों के लिए नाभि के समान है। यहां पर ब्रह्मचर्य का सर्व व्रतधारण सामर्थ्य अभिव्यंजित है। 3. यह व्रत किसी विशाल वृक्ष के स्कन्ध के समान है। धर्म का आधार ब्रह्मचर्य है। आधाररूपता अभिव्यंजित है। 4. यह व्रत महानगर के प्राकार - परकोटा के कपाट की अर्गला के समान है। सुरक्षा सामर्थ्य अभिव्यक्त है। 5. डोरी से बंधे इन्द्रध्वज के सदृश्य है। उसी प्रकार अनेक गुणों से समृद्ध ब्रह्मचर्य है। यहाँ ब्रह्मचर्य की गुणीय श्रेष्ठता के साथ सर्व पूज्यता अभिलक्षित है। 6. जैसे ग्रह, नक्षत्र और तारामंडल में चन्द्रमा प्रधान होता है उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है। इस उपमान द्वारा ब्रह्मचर्य की सर्व व्रत प्रधानता तथा श्रेष्ठता कथित है। 7. मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल और लाल (रत्न) की उत्पत्ति के स्थानों में समुद्र प्रधान है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य सर्व व्रतों का श्रेष्ठ उद्भव स्थान है। यह सभी गुणीय प्रविधियों की प्रसवभूमि है। इस उपमान से यह अभिव्यंजित होता है। 8. इसी प्रकार ब्रह्मचर्य मणियों में वैडूर्यमणि के समान उत्तम है। यहाँ उत्तमता, कुलीनता प्रतिपादित है। 9. आभूषणों में मुकुट के समान है, श्रेष्ठता एवं सर्व पूज्यता प्रतिबिम्बित है। 10. समस्त प्रकार के वस्त्रों में श्रोमयुगल कपास के वस्त्र-युगल के सदृश हैं। इस उपमान के द्वारा ब्रह्मचर्य की सभी व्रतों में श्रेष्ठता अभिव्यंजित हैं। 11. पुष्पों में श्रेष्ठ अरविन्द-कमल पुष्प के समान है। यहां पर ब्रह्मचर्य की श्रेष्ठता अनाविलता तथा सौन्दर्यमयता प्रतिपादित है। 27
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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