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________________ ज्ञातासूत्र के वृत्तिकार ने सब प्रकार के कुशल अनुष्ठान को ब्रह्मचर्य माना है।" दसवैकालिक सूत्र में ब्रह्मचर्य का उल्लेख "मैथुन विरति'' के अर्थ में ही किया गया उत्तराध्ययन चूर्णि में ब्रह्मचर्य का निरुक्त (निर्वचन, व्यत्पति सहित व्याख्या) करते हुए बताया गया है बृंहति, बृहितों वा अनेनेति ब्रह्म-जो संयम का बृंहण-पोषण करता है वह ब्रह्मचर्य आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित षट् प्राभृत, द्वादशानुप्रेक्षा के अनुसार स्त्री के अंगप्रत्यंगों को देखते हुए भी उनमें दुर्भाव न लाना ब्रह्मचर्य है। सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुव्भावं। सो बम्हचेरभावं सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि।। " तत्त्वार्थ वार्तिक में ब्रह्मचर्य का अर्थ कामोत्तेजक वस्तुओं तथा दृश्यों का वर्जन किया है। आवश्यक सूत्र की हारिभद्रीया वृत्ति में ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्ति संयम और मैथुन विरति किया गया है। 2.2 व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ ब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्म+चर्य के योग से बना है। "ब्रह्म' शब्द अपने आप में अनेकानेक अर्थों को समेटे हुए है। भारतीय वाङ्मय में "ब्रह्म' शब्द का विस्तृत प्रयोग मिलता है। सूत्रकृतांग सूत्र के टीकाकार ब्रह्मचर्य शब्द की नियुक्ति इस प्रकार करते हैं(1) ब्रह्मचर्यते - अनुष्ठीयते यस्मिन् तद् ब्रह्मचर्यं । अर्थात् - जहाँ ब्रह्म का आचरण किया जाता है, वह ब्रह्मचर्य है। (2) ब्रह्म - सत्य तपोभूतदयेन्द्रिय निरोध लक्षणं तच्चर्यते अनुष्ठीयते यस्मिन् तन्मौनीन्द्र प्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते ब्रह्म अर्थात् सत्य, तप, जीव दया, इन्द्रिय निरोध लक्षण से युक्त आचरण जिसमें है वह निर्ग्रन्थ प्रवचन ब्रह्मचर्य कहलाता है। उत्तराध्ययन चूर्णि में ब्रह्मचर्य शब्द का निर्युक्त इस प्रकार किया गया है- बृंहति बंहितो वा अनेनेति ब्रह्म अर्थात् जो संयम का बृंहण/पोषण करता है, वह ब्रह्म/ब्रह्मचर्य है। (3) वैदिक वाङ्मय के अनुसार ब्रह्म में चरण तद्गत आचरण ब्रह्मचर्य है- ब्रह्मणि चरणं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते। "ब्रह्म" शब्द के मुख्य रूप से तीन अर्थ रहे हैं वीर्य, आत्मा, विद्या। चर्य - शब्द के भी तीन अर्थ हैं "रक्षण, रमण तथा अध्ययन।'' इस तरह ब्रह्मचर्य के
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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