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________________ उन पर खरा उतरने पर ही त्याग माना जाता है। जैसे - 1. भोग की परवशता न हो। परवशता दो तरह से हो सकती हैं - (अ) भोग्य वस्तु का अभाव अर्थात् व्यक्ति के पास भोग्य पदार्थ उपलब्ध ही न हो। (ब) भोग्य वस्तु तो उपलब्ध हो परन्तु किसी रोग से ग्रस्त होने के कारण मृत्यु आदि के भय से या अन्य किसी प्रलोभन के वशीभूत होकर भोग करने में असमर्थ हो। 2. भोग्य पदार्थ कांत व प्रिय नहीं लगते हों। इस प्रकार, कांत और प्रिय तथा सहज सुलभ पदार्थों को स्वतंत्र चेतना से बिना किसी बाह्य दबाव के त्याग करना ही सच्चा त्याग/चारित्र है। तप - ब्रह्मचर्य के विषय में अच्छी तरह जानना, उसमें श्रद्धा रखना एवं अब्रह्मचर्य का प्रत्याख्यान करना अपने आप में पर्याप्त नहीं है। ब्रह्मचर्य साधना के मार्ग में साधक के सामने अनेक आरोह-अवरोह आते रहते हैं। अनन्त जन्म से व्यक्ति की चेतना में काम के संस्कार जमे हुए होते हैं। अनुकूल निमित्त मिलने पर ये पुनः पुनः उभरते रहते हैं। काम भोग की लालसा एक दुःसाध्य रोग की तरह है, जो आत्मा के अनादिकाल से लगा हुआ है। एक बार के प्रत्यत्न से ही यह रोग मिटता नहीं है। इसकी चिकित्सा करने पर भी कभी-कभी यह पुनः क्रियाशील हो जाता है। इससे साधक की ब्रह्मचर्य के प्रति अरति हो जाती है और वह काम भोग के प्रति पुनः आकर्षित हो जाता है। जैन आगमों में इसका उपाय तपस्या बताया गया है। तपस्या आत्मा की शुद्धि का साधन है। तपस्या के अनेक आयाम हैं जिनसे शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक तीनों ही स्तर पर शुद्धि होती हैं। अनशन, ऊनोदरी आदि बाह्य तप शरीर को नियंत्रित कर मनोनिग्रह में सहायता करते हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय आदि मानसिक पवित्रता को विकसित करते हैं। इस प्रकार बारह प्रकार के तपोयोग ब्रह्मचर्य की साधना के लिए बहत लाभदायक होता है। 189
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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