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________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र में कायक्लेश का नाम लिए बिना स्वेद ( पसीना ) धारण करना, जमे हुए या इससे भिन्न मैल को धारण करना, मौन व्रत धारण करना, केशों का लुंचन करना, सर्दी गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या भूमि निषद्या जमीन पर बैठना, दंशमशक का क्लेश सहना " - 54 55 56 आदि कायक्लेश के अंगों को ब्रह्मचर्य के विकास के साधन के रूप में निरूपित किया गया है। दसवैकालिक की चूर्णियों में वीरासन आदि आसनों का अभ्यास, आतापना, केशलोच आदि निरवद्य प्रवृत्तियों को कायक्लेश कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में कायक्लेश की परिभाषा आसन के संदर्भ में की गई है औपपातिक सूत्र में आसनों के अतिरिक्त सूर्य की आतापना, सर्दी में वस्त्र विहीन रहना, शरीर को न खुजलाना न थूकना तथा शरीर का परिकर्म और विभूषा न करना - ये भी कायक्लेश के प्रकार बतलाए गए हैं। ये सभी संसाधन ब्रह्मचर्य विकास में सहायक एवं प्रकृष्टोपकारक माने जाते हैं। इनके आचरण से ब्रह्मचर्य की सिद्धि होती है, ऐसा शास्त्रसम्मत एवं व्यवहार फलित है। उत्तराध्ययन सूत्र की शान्त्याचार्यवृत्ति में कायक्लेश को संसार विरक्ति का हेतु माना गया है।" ब्रह्मचर्य विकास के लिए आसन, प्राणायाम एवं मुद्रा आदि का प्रयोग बहुत उपयोगी होता है। 57 3.5.1 आसन • आस उपवेशने धातु से ल्युट प्रत्यय करने पर आसन शब्द निष्पन्न होता है। जिस पर तपश्चर्या एवं उन्नत कार्य के लिए बैठा जाए वह आसन है। स्थिरसुखमासनम् अर्थात् जिस पर स्थिरता पूर्वक सुख से बैठा जा सके वह आसन है जैन परम्परा में आसन के लिए 'स्थान' शब्द का प्रयोग मिलता है। मनोनुशासनम् में आचार्य तुलसी ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है 'शरीरस्य स्थिरत्वापादनं स्थानम्' अर्थात् विधिवत् शरीर को स्थिर बनाकर बैठना स्थान- आसन कहलाता है। यह कायगुप्ति है।" कुछ आसनों से काम केन्द्रों पर दबाव पड़ता है जिससे वासनाओं को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है। जैन आगमों में ब्रह्मचर्य विकास के लिए अनेक आसनों का प्रयोग मिलता है। आचारांग सूत्र में ऊर्ध्वस्थान (घुटनों को ऊंचा और सिर को नीचा) आसन में कायोत्सर्ग करने का निदर्शन मिलता है।" भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ इसकी व्याख्या में कहते हैं कि यह आसन मुख्यतः सर्वांगासन और गौण रूप से शीर्षासन, वृक्षासन आदि का सूचक है। इन आसनों से वासना केन्द्र शान्त होते हैं। उनके शान्त होने से वासनाएं भी शांत हो जाती हैं।' 61 स्थानांग सूत्र में सात प्रकार के आसनों का उल्लेख हैं। व्याख्याकार आचार्य महाप्रज्ञ 'उत्कुटुकासन' (उकडू) को ब्रह्मचर्य विकास के लिए बड़ा उपयोगी मानते हैं। दोनों पैर को भूमि पर टिकाकर दोनों पुतों को भूमि से न छुआते हुए जमीन पर बैठने से यह आसन बनता है। इसका प्रभाव वीर्य ग्रन्थियों पर पड़ता है और यह ब्रह्मचर्य की साधना में बहुत फलदायी है। भगवती सूत्र में भी ऐसा ही वर्णन मिलता है। 62 63 174
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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