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________________ विभूषा करने से कामोत्तेजना में वृद्धि होती है, इसका आधार आयुर्वेद साहित्य में भी मिलता है। चरक संहिता के अनुसार स्नान करने के बाद केशर आदि सुगन्धित द्रव्यों से युक्त चन्दन लगाने तथा सुगन्धित पुष्प मालाओं के धारण करने से शरीर में वृष्यता (कामोद्दीपन) आती है। 194 2.13. वाणी संयम आचारांग सूत्र में ब्रह्मचर्य सुरक्षा के लिए एक उपाय वचन गुप्ति बताया गया है। भाष्यकार इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि काम के विषय में कुछ पूछने पर वाङ्गुप्ति करनी चाहिए। सूत्रकृतांग सूत्र में संयम को नष्ट करने वाली कथा को 'भिन्न कथा' कहा गया है। व्याख्याकार ने विस्तृत व्याख्या के साथ यह बताया है कि किस प्रकार कामुक स्त्रियां मुनि के पास आकर विभिन्न प्रश्न पूछती हैं। ऐसी स्थिति में मौन का निर्देश मिलता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य सुरक्षा के उपायों में विकारयुक्त भाषण का निषेध किया गया है। वहां सम्पूर्ण रूप से मौनव्रत धारण कर अन्तरात्मा को भावित करने का निर्देश भी है। 198 उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार ब्रह्मचारी को किसी संदेहास्पद स्थानों में, घरों में, दो घरों के बीच की संधियों में और राजमार्ग में, अकेले ही किसी अकेली स्त्री के साथ न खड़ा रहना चाहिए और न बातचीत करनी चाहिए।190 2.14. ग्रामानुग्राम विहार आचारांग सूत्र में ब्रह्मचर्य सुरक्षा के लिए एक सूत्र है - ग्रामानुग्राम विहार। इसकी व्याख्या में भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि जैसे द्वेषात्मक प्रवृत्ति वाले मनुष्य का बैठे रहना हितकारी होता है वैसे ही रागात्मक प्रवृत्ति वाले मनुष्य का खड़े रहना या गमन करना हितावह होता है। अकारण एक ही स्थान पर रहने से संसर्ग की वृद्धि होती है और काम की अभिलाषा को प्रोत्साहन मिलता है। इसलिए ग्रामानुग्राम विहरण करना ब्रह्मचर्य का उपाय बताया गया है। ज्ञाताधर्मकथा में कुण्डरिक और पुण्डरिक की कथा में अशन आदि मनोज्ञ विषयों की मूर्छा में जनपद विहार न कर एक ही स्थान पर रहने को श्रामण्य से पतन बताया गया है। 207 व्यवहार भाष्य में काम चिकित्सा की क्रमबद्ध विधि का उल्लेख है - वहां भी एक उपाय जनपद विहार है। 202 निशीथ सूत्र के अनुसार निरन्तर नित्यवास से अतिपरिचय होता है, इससे अवज्ञा या अनुराग दोनों ही हो सकते हैं। इसलिए मुनि के लिए नौ कल्प विहार का विधान है। इसके अनुसार चातुर्मास के अतिरिक्त एक स्थान पर एक मास से अधिक रहना नहीं कल्पता। ऐसे स्थानों पर दुबारा रहने के लिए मासकल्प या चातुर्मासकल्प से दोगुना काल अन्यत्र विचरना 145
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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