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________________ आहार करना जितना साधना के लिए आवश्यक हो। चूर्णिकार उसकी विशेषता बतलाते हुए कहते हैं- 14 यात्रामात्राशनो भिक्षुः परिशुद्ध मलाशयः। विविक्तनियताचारः, स्मृतिदोषैर्न बाध्यते।। ठाणं, समवायांग, उत्तराध्ययन, आवश्यक आदि सूत्र की ब्रह्मचर्य गुप्तियों में भी इसे स्थान दिया गया है। ब्रह्मचर्य गुप्तियों के अतिरिक्त भी ठाणं सूत्र में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए आहार का परित्याग करने को आज्ञा का अतिक्रमण नहीं माना गया है। 145 उत्तराध्ययन सूत्र में उदाहरण देते हुए कहा गया है - जहा दवग्गो पउरिंधणे वणे, समारूओ नोवसमं उवेइ। एविंदियग्गो वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स, हियाय किस्सई।। जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर ईंधन वाले वन में लगा हुआ दावानल उपशान्त नहीं होता, उसी प्रकार अतिमात्रा में खाने वाले की इन्द्रियाग्नि - कामाग्नि शान्त नहीं होती। इसलिए अतिमात्रा में भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता है। 146 संबोधि में आचार्य महाप्रज्ञ ने इसे मितभोजन के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने मितभोजन का प्रयोग ब्रह्मचर्य साधना एवं शारीरिक स्वास्थ्य दोनों ही पहलुओं से बताया है। मितभोजी की परिभाषा करते हुए आप कहते हैं - अल्पवारञ्च भुञ्जानो, वस्तून्यल्पानि संख्यया। मात्रामल्पाञ्च भुञ्जानो, मिताहारो भवेद् यतिः।। अर्थात् जो मुनि एक या दो बार खाता है, संख्या में अल्प वस्तुएं और मात्रा में अल्प खाता है, वह मितभोजी है।47 2.8. पूर्व भुक्त भोगों का स्मरण न करना सम्भव है साधक ने ब्रह्मचर्य ग्रहण करने से पहले मनोज्ञ विषयों के भोग भोगे हों। साधना काल से पूर्व भोगे गए भोगों का अनुस्मरण ब्रह्मचर्य साधना के लिए घातक होता है। इससे मोहकर्म के उद्दीप्त होने की सम्भावना रहती है जिससे विकारों की वृद्धि होती है। आचारांग सूत्र में अतीत की स्मृति करने वाले मन का संवरण करने का निर्देश इसी दृष्टिकोण से किया गया प्रतीत होता है। इसी क्रम में सूत्रकृतांग सूत्र में भुक्त भोगों के स्मरण को विद्वान व्यक्ति के लिए त्याज्य कहा गया है। ठाणं, समवायांग, उत्तराध्ययन, आवश्यक आदि सूत्र की ब्रह्मचर्य गुप्तियों में इसे समान स्थान मिला है। ठाणं सूत्र में ब्रह्मचर्य के स्वीकरण के पश्चात् काम-भोगों की अभिलाषा करने मात्र को दुःखशय्या कहा गया है। वहाँ इसका परिणाम मानसिक उतार-चढाव और विनिघात बताया 139
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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