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________________ दसवैकालिक सूत्र में सामान्यतः सुन्दर एवं युवा स्त्री ही नहीं बल्कि जिसे देखकर भय और जुगुप्सा के भाव उत्पन्न हों वैसी विभत्स एवं वृद्धा स्त्री का भी वर्जन करने को कहा गया है - हत्थपायपडिच्छिन्नं कण्णनासविगप्पियं। अवि वाससईं नारिं बंभयारी विवज्जए।। जिसके हाथ और पैर कटे हुए हों, जो कान-नाक से विकल हों, वैसी सौ वर्ष की वृद्धा नारी से भी ब्रह्मचारी दूर रहे। उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचारी के लिए स्त्री आदि से युक्त स्थान का वर्जन करते हुए ऐसे स्थानों में रहने का निर्देश है जो स्त्रियों के उपद्रव से रहित हो। ज्ञानार्णव के चौदहवें अध्याय तथा भगवती आराधना में भी ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए स्त्री संस्तव वर्जन का विस्तृत विवेचन किया गया है। भगवती आराधना में स्त्री संस्तव का वर्जन करते हुए स्त्री वाचक शब्दों की निरुक्ति का सुन्दर विवेचन किया गया है - 1. वधू क्योंकि वह पुरुष का वध करती है। 2. स्त्री क्योंकि वह मनुष्य में दोषों को एकत्र करती है। 3. नारी मनुष्य का ऐसा 'अरि' - शत्रु दूसरा नहीं है, इसलिए उसे नारी कहते हैं। 4.प्रमदा पुरुष को सदा प्रमत्त करती है इसलिए उसे प्रमदा कहा गया है। 5. विलया पुरुष के गले में अनर्थ लाती है अथवा पुरुष को देखकर विलीन होती है इसलिए उसे विलया कहते हैं। 6. युवती या योषा - पुरुष को दुःख से योजित करती है, इसलिए उसे युवती या योषा कहते हैं। 7. अबला- उसके हृदय में धैर्यरूपी बल नहीं होता, अतः वह अबला कही जाती है। 8. कुमारी- कुमरण का कारण उत्पन्न करती है, इसलिए वह कुमारी है। 9. महिला पुरुष पर आल-दोषारोपण करती है, इसलिए वह महिला है। इस सन्दर्भ में आचार्य तुलसी का यह मानना है कि एकान्तवासी मनुष्य भी स्वप्न में या मानसिक वृत्ति से दूसरों के साथ संपर्क जोड़ कर भ्रष्ट हो जाता है तो स्त्री के संसर्ग में रहना 126
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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