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________________ 2.5 भावात्मक हानियां अब्रह्मचर्य व्यक्ति के भावात्मक स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है। काम भोग की अत्यासक्ति से व्यक्ति भावात्मक दृष्टि से रुग्ण हो जाता है। जैन आगमों में अब्रह्मचर्य जनक भावात्मक हानियों का भी अनेक स्थलों पर वर्णन मिलता है - 2.5(1) क्रोध - ठाणं सूत्र में क्रोध की उत्पत्ति के दस कारणों में नौ कारण मनोज्ञ विषयों के अपहरण एवं अमनोज्ञ विषयों के उपहृत करने से संबंधित हैं। इससे स्पष्ट होता है कि क्रोध के कारणों में प्रमुख कारण विषय वासना ही है। 148 ज्ञानार्णव एवं भगवती आराधना में सोदाहरण यह कहा गया है कि जैसे चोर जागते हुए मनुष्य पर कुपित होता है वैसे ही कामी पुरुष ब्रह्मचारी पर कुपित होता है। 2.5(2) अहंकार की वृद्धि - उत्तराध्ययन सूत्र में विषयासक्त मनुष्य के अहंकार की वृद्धि में मनोज्ञ विषयों की सुलभता को भी एक कारण माना है। वह मन, वचन और काय से मत्त हो जाता है। व्याख्याकार ने उदाहरण देकर स्पष्ट करते हुए कहा है कि शरीर से मत्त होकर वह मानने लगता है कि 'मैं कितना रूप और शक्ति संपन्न हूँ।' वाणी का अहंकार करते हुए वह सोचता है - 'मैं कितना सु-स्वर हूँ, मेरी वाणी में कैसा जादू है।' मानसिक अहं के वशीभूत होकर वह सोचता है - 'ओह! मैं अपूर्व अवधारणा शक्ति से संपन्न हूँ।' इस प्रकार वह अपना गुणाख्यान करता है। 150 2.5(3) अविनय की वृद्धि - आचारांग सूत्र में अब्रह्मचर्य को अविनय को बढ़ाने वाला बताया गया है। सूत्रकार कहते हैं कि विषयासक्त मनुष्य न तो चारित्र का सम्यक् पालन कर सकता है और न ही गुरुकुलवास के अनुशासन का सम्यक् पालन कर सकता है। वह उद्दण्ड और स्वेच्छाचारी हो जाता है। वह शरीर की विभूषा करने लगता है। दूसरों के द्वारा प्रेरित करने पर भी वह उनकी अवहेलना करते हुए कहता है कि 'यह तीर्थंकरों की आज्ञा नहीं है। इस प्रकार उसका अविनय बढ़ता जाता है। 151 2.5(4) माया - आचारांग सूत्र के अनुसार कामासक्त व्यक्ति अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए बहुत माया, छल, कपट करता है, इसलिए वह बहुमायावी होता है। सूत्रकृतांग सूत्र में अब्रह्मचर्य के कारण किए जाने वाले मायाचार का बड़ा सुंदर एवं मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है। दुराचार का सेवन कर अपने पाप पर पर्दा डालने के लिए वह आत्म प्रशंसा करने लग जाता है। जब दूसरे उसे ऐसा न करने की प्रेरणा देते हैं तब भी वह भूल स्वीकार नहीं करता। वह कहने लगता है - 'मैं अमुक कुल में जन्मा हूँ।' 'मैं अमुक हूँ। क्या मैं ऐसा अकार्य कर सकता हूँ।' 'मैंने वायु से प्रेरित होने वाली कनकलता की भांति कामदेव की वश्यता से कंपित होने वाली भार्या को छोड़कर प्रव्रज्या ग्रहण की है। क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ।' 101
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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