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________________ उसकी गति मिथ्या भाषण की ओर हो जाती है। वह केवल वर्तमान में आसक्त बन अतीत, अनागत जन्म तथा आत्मा आदि तत्त्वों की उत्थापना करने लग जाता है। वह कहता है - परलोक तो मैंने देखा नहीं, यह रति (आनंद) तो चक्षु-दृष्ट है- आंखों के सामने हैं। ये काम भोग हाथ में आए हुए हैं, भविष्य में होने वाले संदिग्ध हैं। कौन जानता है, है या नहीं? 120 2.3(4) विषयासक्ति - चोरी की प्रेरक - आचारांग सूत्र में विषयासक्ति के परिणामों को बताते हुए कहा गया है कि विषय की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को धन की आवश्यकता होती है। इसलिए विषयासक्त मनुष्य समय-असमय का विवेक किए बिना निरंतर धन संग्रह में प्रयत्नशील रहता है। मूर्छा के कारण उसे उचित-अनुचित का भान नहीं रहता इसलिए वह चोरी-डकैती आदि कार्यों में भी प्रवृत्त हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी तृष्णा की पूर्ति न होने पर आसक्त व्यक्ति द्वारा दूसरों की वस्तुओं को चुराने की बात कही गई है। " 2.3(5) परिग्रह - आचारांग सूत्र में विषयासक्ति को ही परिग्रह का हेतु मानते हुए कहा गया है कि इंद्रिय विषय ही लोभ के उदय में प्रेरक बनते हैं और लोभ के कारण ही इंद्रिय विषयों के प्रति प्रिय-अप्रिय की भावना पैदा होती है। इससे (प्रिय-अप्रिय की भावना से) मनुष्य माता-पिता आदि स्वजनों तथा नाना प्रकार के उपकरणों में आसक्त होकर परिग्रह रत हो जाता है। उन स्वजनों तथा उपकरणों के ममत्व के कारण वह रात-दिन कायिक, वाचिक और मानसिक परिताप से संतप्त रहता है। 123 2.3(6) निर्दयता - धर्मामृत अणगार में यह कहा गया है कि विषयासक्ति दयाभाव का शत्रु है इसलिए विषयों की लालसा से व्यक्ति निर्दयी हो जाता है। 124 2.4 व्यावहारिक हानियां निश्चय की दृष्टि से तो अब्रह्मचर्य हेय है ही, व्यवहार की दृष्टि से भी वह उतना ही हेय है। अब्रह्मचर्य जन्य आसक्ति से मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। जैन आगमों में इन व्यावहारिक हानियों का भी विस्तृत वर्णन मिलता है2.4(1) आज्ञा की हानि - आचारांग सूत्र में साधना के क्षेत्र में तीर्थंकरों की आज्ञा को प्राथमिकता दी गई है। इस संदर्भ में यह बताया गया है कि तीर्थंकरों ने विषय-विकार से दूर रहकर आचार में रमण करने की आज्ञा दी है। आचार का फल है कर्म-निर्जरा। विषयलोलुप व्यक्ति सम्यक् आचरण और कर्म निर्जरा के प्रति गतिशील नहीं होता। इंद्रिय जय की साधना करते हुए भी वह इंद्रिय विषयों में आसक्त हो जाता है और पारिवारिक बंधन और आर्थिक अनुबंध को तोड़ नहीं पाता। आसक्ति के अंधकार में प्रविष्ट तथा कामासक्ति के दोषों से अनभिज्ञ व्यक्ति को आज्ञा का लाभ नहीं मिलता है। 125 2.4(2) निंदा व तिरस्कार की प्राप्ति - आचारांग सूत्र में विषयासक्ति को लोक में निंदा और 97
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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