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________________ 2.2(9) स्वाभिमान का नाश - विषय लोलुप व्यक्ति विषयों की प्राप्ति के लिए अपने स्वाभिमान को भी खो देता है। ज्ञानार्णव में रूपक की भाषा में आचार्य शुभचंद्र कहते हैं अपि मानसमुत्तुंनगांग्रवर्तिनाम्। स्मरवीर: क्षणार्धन विधत्ते मानखण्डनम्।। 11/33।। जो प्राणी मान रूप ऊँचे पर्वत के शिखर पर स्थित हैं उसके उस मान का खण्डन कामदेव रूपी सुभट क्षणभर में कर डालता है। भगवती आराधना के अनुसार विषयों का लोभी मनुष्य कुलीन और बुद्धिमान होते हुए भी विषय सेवन के लिए ज्ञान और कुल आदि से अत्यंतहीन की भी सेवा करता है। 106 2.2(10) बुद्धि का नाश - भगवती आराधना में कहा गया है कि कामी मनुष्य की वचन कुशलता और समझदारी नष्ट हो जाती है। शास्त्रों को समझने वाली तीक्ष्ण बुद्धि भी मंद हो जाती है। 107 2.3. नैतिक एवं चारित्रिक हानियां नैतिकता एवं चरित्र ही किसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के विकास एवं सुरक्षा का मूलाधार होता है। अब्रह्मचर्य (कामासक्ति) एक ऐसा अभिशाप है जो नैतिकता एवं चरित्र की जड़ों को खोखला कर देता है। इससे अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। 2.3(1) व्रत भंग - आचारांग सूत्र के अनुसार इंद्रिय विषयों की अधीनता से पीड़ित व्यक्ति ग्रहण किए हुए व्रतों का संपूर्ण पालन नहीं कर सकता। ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर सभी व्रतों का विध्वंस हो जाता है। साधक सिंह वृत्ति से व्रतों को स्वीकार कर उन्हें पुन: भंग करता हुआ शृंगाल वृत्ति का आचरण करने लग जाता है। दसवैकालिक सूत्र में भी मैथुन को चारित्र भेद का आयतन (स्थान) माना है। 109 सूत्रकार कहते हैं कि ब्रह्मचर्य व्रत के विनष्ट होने पर सभी व्रतों का विनाश हो जाता है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि ब्रह्मचर्य से विचलित होने वाला श्रामण्य को त्याग देता है। इसलिए उसके सारे व्रत टूट जाते हैं। कोई श्रमण श्रामण्य को न भी त्यागे, किंतु मन भोग में लगे रहने के कारण उसका ब्रह्मचर्य व्रत पीड़ित होता है। वह चित्त की चंचलता के कारण ऐषणा व ईर्या की शुद्धि नहीं कर पाता, इससे अहिंसा व्रत नष्ट होता है। वह इधर-उधर रमणियों की ओर देखता है, दूसरे पूछते हैं तब झूठ बोलकर दृष्टि दोष को छिपाना चाहता है, इस प्रकार सत्य व्रत का नाश होता है। तीर्थंकरों ने श्रमण के लिए स्त्री संग का निषेध किया है। स्त्री संग करने वाला उनकी आज्ञा भंग करता है, इस प्रकार अचौर्य व्रत का नाश होता है। स्त्रियों में ममत्व करने का कारण उसके अपरिग्रह व्रत का भी नाश हो जाता है। इस प्रकार एक ब्रह्मचर्य के नाश होने से सभी व्रतों का नाश हो जाता है। 110 95
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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