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________________ कोटिमें चला जाता है। इसी प्रवृत्ति क्षण की अपेक्षा से यहां 'विरमण' को निर्जरा माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचर्य को 'शांति तीर्थ' की उपमा दी गई है। वृहद् वृत्ति के अनुसार ब्रह्मचर्य संसार समुद्र को तैरने का उपायभूत घाट है। इसमें स्नान करने वाला अर्थात ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला कर्म रजों को धो कर निर्मल हो जाता है। इसी सूत्र में ब्रह्मचर्य के मात्र एक साधन, विविक्तशयनासन की साधना करने वाले को आठ ही कर्मों को तोड़ने वाला बताया गया है। दसवैकालिक सूत्र में भी ब्रह्मचर्य को विशोधि स्थान अर्थात् कर्म निर्जरा का निमित्तभूत माना गया है।' 1.4(4) सद्गति - यह संसार चतुर्गत्यात्मक है। जीव अपने-अपने कर्मो के अनुसार नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन गतियों का परिसंचरण करते रहते हैं। इनमें नरक व तिर्यंच गति को दुर्गति और मनुष्य व देव गति को सद्गति माना जाता है। जो अनुत्तर विमान आदि स्वर्ग विमानों में जन्म लेते हैं, वे लंबी आयु और समचतुरस्र संस्थान पाते हैं। और जो मनुष्य गति में जन्म लेते हैं वे वज्र ऋषभनाराच जैसा सुदृढ़ संहनन पाते हैं। तीर्थंकर और चक्रवर्ती आदि के रूप में उत्पन्न होने वाले तेजस्वी और महान बलशाली होते यद्यपि एक साधक का लक्ष्य मोक्ष पाना होता है, लौकिक ऋद्धि-सिद्धि नहीं। लेकिन जब तक चरम लक्ष्य प्राप्त नहीं होता तब तक देव व मनुष्य गतियाँ प्रशस्त मानी जाती हैं। जैन आगमों में ब्रह्मचर्य के प्रभाव से देवगति की प्राप्ति के अनेक प्रमाण मिलते हैं ठाणं सूत्र के अनुसार शब्द, रूप आदि काम भोगों की परिक्षा करने वाला अर्थात् भली-भांति जानकर त्याग करने वाला तथा मैथुन का विरमण करने वाला सुगति को प्राप्त होता है। राजा, सेनापति, मंत्री आदि उच्च राज्याधिकारियों का जीवन महाआरम्भ और महापरिग्रह युक्त होता है। वे भी यदि काम-भोगों का त्याग करते हैं तो मृत्यु के पश्चात् सर्वार्थ सिद्ध विमान में देवता के रूप में उत्पन्न होते हैं। 44 प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य को नरक गति एवं तिर्यंच गति के मार्ग को रोकने वाला कहकर प्रकारांतर से सद्गति का मार्ग खोलने वाला कहा गया है। यहाँ ब्रह्मचर्य को परलोक में फल प्रदायक एवं भविष्य में कल्याण का कारण कहा गया साधना के क्षेत्र में बल प्रयोग नहीं चलता। जब साधक अपनी मानसिकता के साथ त्याग करता है तभी वह साधना फलदायी होती है। कहा भी गया है 87
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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