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________________ पाप कार्यों को न छोड़ना और कही हई बात को नहीं मानना मान कषाय है। (तत्त्वार्थमञ्जूषा-द्वितीय खण्ड - पृष्ठ ४६६) ___ इसलिए वेश्या की तरह अल्पकाल आकर्षित करके फिर वंचना करनेवाले उन कुतर्कों को छोड़कर इस वास्तविकता को जानना चाहिये कि ये सभी शास्त्र भी पंचमकाल में ही लिखे गये हैं । अपि च, साधुओं के २८ मूलगुण प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय जो थे वे ही २८ मूलगुण अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के समय भी थे और वे ही २८ मुलगण अब भी हैं तथा पंचमकाल के अन्त तक होने वाले सभी भावलिंगी मुनियों के भी होंगे। इनमें त्रिकाल में भी परिवर्तन नहीं हो सकता। जिनवाणी की भक्ति एक बार आचार्य शान्तिसागर महाराज ने कहा था, "हम एक अक्षर भी आगम के विरुद्ध नहीं बोलते हैं। जिनधर्म जिनवाणी में है। उस जिनधर्म में तुम्हें सर्व पदार्थ प्राप्त होंगे। जिनवाणी के अनुसार प्रवृत्ति करना चाहिए।" प्रायः देखा जाता है, परिस्थिति देख कर तथा लोगों को अनुरंजित करने के लिए लोगों के मुख से ऐसी बात निकल जाया करती है कि ये शास्त्र पुराने जमाने में लिखे गये हैं, आज की स्थिति दूसरी है। आज वे रचे जाते हैं तो उनका रूप दूसरा होता। ऐसी आगम के विषय में आचार्य महाराज की श्रद्धा नहीं थी। उनकी अविचल श्रद्धा थी कि जो कुछ आपोक्त आगम में लिखा है, वह सर्वज्ञ की वाणी होने से पूर्णतया सत्य, निर्दोष तथा अबाधित है। आचार्य महाराज का प्राण आगम है, उसके विरुद्ध न वे एक शब्द बोलेंगे, और न विपरीत प्रवृत्ति ही करेंगे। इतने बड़े आचार्य की नम्रता की कोई सीमा है जब वे कहते थे, “यदि हमें एक बालक भी आगम लाकर बतायेगा, कि हमने भूल की है, तो हम त्रन्त अपनी भूल को सुधारेंगे।" एक बार महाराज ने कहा था, "यदि हम आगम के विरुद्ध बोलेंगे, तो दोष लगेगा। इससे हम सदा आगम के अनुकूल ही कहेंगे।" सत्य महाव्रत की भावना में अनुवीचिभाषण अर्थात् आगम परम्परा के अनुसार कथन करने का जो उल्लेख आ. उमास्वामी ने किया है. वह आदेश उनके हृदय में सदा विद्यमान रहता था। (चारित्र चक्रवर्ती - पृष्ठ २१२-२१३) सर्वज्ञके द्वारा धर्मके व्याख्यानमें कहे गये वचन सत्य हैं, इससे भिन्न राग-द्वेषसे दूषित हृदयवाले किसी अल्पज्ञके वचन सत्य नहीं हैं। इसीलिये जिस जीवकी बुद्धि सर्वज्ञके वचनोंमें भ्रमको प्राप्त होती है (अर्थात् शास्त्र पर श्रद्धा नहीं होती है) वह अतिशय पापी है, अथवा वह भव्य ही नहीं है । (पद्मनन्दि पञ्चविंशतिः-७/१, पृष्ठ १३८) जो मुनि शास्त्रों में और मुनिचर्या में परिवर्तन /सुधार करने की बात करता है, वह दुर्बुद्धि आगम का अविनय करता है और धर्मात्माओं के प्रतिकूल होता है। तथा इन महापापों के कारण अत्यन्त नीच किल्विष जाति के देवों में उत्पन्न होता है । ऐसे मुनि को सन्त तरुणसागर प्रश्न करते हैं - "कौन कहता है कि महावीर 'आउट-ऑफ-डेट' हो गये?" "महावीर आज भी 'अप-टू-डेट' है।" (क्रांतिकारी सूत्र - पृष्ठ ६१) यदि मुनियों के सम्पूर्ण परिग्रह त्याग, शरीरसंस्कार त्याग और यथालब्ध भोजन इनको पुरानी बाते कह कर कोई सुधारक बनना चाहता है तो उसे मुनियों की नग्नता भी चतुर्थ काल की हजारो वर्ष पुरानी बात है ऐसा विचार करते हुए नग्न वेष भी धारण नहीं करना चाहिये । यदि किसीको शास्त्रोक्त आचरण करना पसन्द नहीं है तो मुनि बनने की कोई जबरदस्ती तो है नहीं। परन्तु मुनिपद में रहकर शास्त्रविरुद्ध वर्तन करना, उसका समर्थन और प्रचार करना दुर्गति की प्राप्ति का कारण होने से ऐसा करना यत्किंचित् भी उचित नहीं है, क्योंकि शुद्र लौकिक एवं भौतिक स्वार्थों के लिए सिद्धान्तों को अपनी इच्छा के अनुसार तोड़मोड़ कर प्रस्तुत करना यह अक्षम्य अपराध है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा हैजिणवयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो।।३९८।। - कड़वे सच ...................-११९ - ... कड़वे सच ....................१२०/
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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